इबादतखाना
रचनाकार:
टीपू सलमान मख़दूम
पंजाबी से अनूदित
1581
फ़तेहपुर सीकरी
अकबर की पुर्तगाली महारानी मारिया उसकी गोद में बैठी
छेड़छाड़ में मसरूफ़ थी। अकबर का मन उसे छोड़कर जाने को कतई नहीं चाह रहा था, मगर जाना भी अनिवार्य था; इबादतखाना में सारा आलम उसका इंतज़ार
कर रहा था।
"बस करो जान-ए-मन, अब मुझे जाने दो। आज की रात मुझे इबादतखाने में गुज़ारनी है।" मुग़ल शहंशाह अकबर ने प्यार से मारिया के लचीले और कोमल नग्न पार्श्व पर हाथ रखकर उसे एक ओर करने का प्रयास किया।
मारिया उससे और अधिक चिपट कर बैठ गई और अपने रस-भरे अधर बादशाह की पुष्ट और बलवान
गर्दन पर रख दिए। अकबर को लगा जैसे किसी ने मलाई का पेड़ा उसकी गर्दन पर रख दिया
हो।
"नहीं शहंशाह, आज
मैं आपको नहीं जाने दूँगी। आज मेरा बदन अग्नि पर जल रहा है। आज मैं आपके
शाही सागर से अपनी प्यास बुझाऊँगी।"
अकबर को हँसी आ गई। ऐसी चंचलता कोई
यूरोपीय महिला ही कर सकती थी।
"आज नहीं मेरी जान, आज
काम है। कल तुम मेरी मलिका होगी और मैं तुम्हारा ग़ुलाम। जो कहोगी मैं करूँगा। अब
मुझे जाने दो।"
मगर आज मारिया का जुनून नियंत्रण
से बाहर था। कितने अरसे बाद तो अकबर उसके महल में सोने आया था।
"नहीं बादशाह। आज तो मैं आपको अपने अंतरंग में
छुपाकर रखूँगी। आज आपको मुझसे कोई नहीं छुड़ा सकता। अगर आप आज मुझे छोड़कर चले गए
तो मैं खुद को फाँसी लगा लूँगी।"
मारिया रुआँसी हो
गई।
अंदर से अकबर का भी दिल उसे छोड़कर जाने को
नहीं चाह रहा था, मगर क्या हो सकता था। सारे विद्वान उसका इंतज़ार कर रहे थे।
"आज की माफ़ी दे दो मेरी ख़ूबसूरत मलिका, मैं विवश हूँ। बादशाहत कोई आसान काम
नहीं।"
"अगर शहंशाह एक रात भी अपनी मर्ज़ी से अपनी मलिका से प्रेम
नहीं कर सकता तो क्या फ़ायदा ऐसी शहंशाही का। जाए भाड़ में ऐसी बादशाहत।"
अकबर को फिर हँसी आ गई। वैसे वह कह तो ठीक ही
रही थी। अकबर भी आज मलिका के उभरे हुए
वक्ष और पुष्ट जाँघों के लिए उत्सुक हो रहा था और मलिका भी अठखेलियाँ कर रही थी। कितने अरसे बाद
तो मारिया के साथ संयोग की बारी आई थी।
"मलिका,
कल
सारी रात मैं तुम्हारे साथ ही रहूँगा, वादा। आज मुझे जाने दो।"
अकबर ने बेदिली से
आख़िरी कोशिश की, मगर आज मलिका नहीं मान रही
थी। आज उसने बादशाह के रस से अपनी प्यास बुझाने का निश्चय कर
लिया था।
शिकार का शौक़ीन, हाथियों से पंजा आज़माई का शौक़ रखने वाला अकबर
अभी चालीस का नहीं हुआ था।
लंदन
प्रधानमंत्री विलियम सेसिल लंदन के व्हाइट हॉल महल के ठंडे और अंधेरे गलियारों को पार करता दरबार में हुए
फ़ैसलों के बारे में सोच रहा था। मलिका ने ज़रूर उसे उस्मानी सल्तनत के साथ व्यापार के बारे में मशवरा करने के
लिए बुलाया होगा। गलियारों में मोटे-मोटे हिन्दुस्तानी, ईरानी और तुर्क क़ालीन बिछे
थे, फिर भी ठंड उसके पहलुओं में घुसती जाती थी।
"मलिका ने तुर्की के साथ व्यापार के लिए 'कंपनी बहादुर' तो बना दी है, अब मशवरा क्या करना है।" सेसिल ने झुँझलाकर सोचा।
गलियारे की छत ऊँची थी और दीवारें छत तक
लकड़ी के तख़्तों से ढँकी हुई थीं। दीवारों
पर जगह-जगह तस्वीरें लगी थीं और हर चार क़दम बाद या तो कोई मेज़ पड़ी थी या कोई प्रतिमा। वह ध्यान रखता कि कमर के
साथ बँधी तलवार की म्यान किसी चीज़ से टकरा न जाए। बाहर फिर बर्फ़बारी शुरू हो चुकी थी, सो उसके चमड़े के जूते भीगे हुए थे। उसकी
सफ़ेद दाढ़ी ठोड़ी और कान तक आते सफ़ेद कॉलर से बाहर थी। गलियारे से बाहर खड़े दरबान के बाद यह दूसरा दरबान था
जो मलिका के कमरे के बाहर खड़ा था। दरबान ने प्रधानमंत्री को झुककर सलाम किया और
कुछ पूछे-बताए बग़ैर ही दरवाज़े का एक पल्ला आधा खोलकर आवाज़ लगाई।
"प्रधानमंत्री विलियम सेसिल आए हैं।"
अंदर से ख़ादिमा की
आवाज़ आई।
"आने दो।"
दरबान ने दरवाज़े के पल्ले को धक्का मारा।
लकड़ी का लंबा-चौड़ा और भारी पल्ला तीन-चौथाई खुल गया। सेसिल ने अपना
चौड़ा गहरा हरा रेशमी फ़्रॉक और ऊपर पहना कलेजी रंग का गरम चोग़ा समेटा और
अंदर दाख़िल हो गया।
बड़ा कमरा भी क़ालीनों और लकड़ी के तख़्तों से
ढका था। एक तरफ़ मलिका का पलंग लगा था और दूसरी तरफ़ एक मेज़ और कुर्सी पड़ी थी।
सामने अग्नि-कुंड में भभकती आग
के आगे पड़ी कुर्सी पर
मलिका
एलिज़ाबेथ प्रथम बैठी थी और साथ एक ख़ादिमा
खड़ी थी। आग देखकर सफ़ेद तंग पायजामे में ठिठुरती सेसिल की पिंडलियाँ और भी
ठंडी हो गईं।
लंबे-लंबे डग भरता सेसिल
आग के बिल्कुल नज़दीक चला गया। फिर उसे एहसास हुआ कि यहाँ से मलिका को झुककर सलाम
करना मुश्किल हो जाएगा। वह दो क़दम पीछे हुआ, झुककर
सलाम किया, फिर एक क़दम आगे आकर एक
घुटना ज़मीन पर टेक कर बैठ गया।
मलिका ने अपना दायाँ हाथ आगे किया जिसे चूमने
के लिए सेसिल ने झुककर थाम लिया। मलिका ने सेसिल की उँगलियाँ कसकर पकड़ लीं। सेसिल
वहीं जड़ हो गया और उसने अपनी मुस्कुराहट मुश्किल से
दबा ली। कुँवारी मलिका की धड़कनें तेज़ थीं। इस
उम्र में भी सेसिल जैसे
पुरुषोचित मर्द को देखकर मलिका का
दिल पिघल जाता था। दरबार में मलिका की ऐसी शरारतें
मशहूर थीं, मगर सबको पता था कि मलिका
ऐसी हरकतें महज़ अपना दिल बहलाने के लिए करती थी। इससे आगे कुछ नहीं था। ख़ादिमा की
मौजूदगी में यह हरकत कोई
संदेश नहीं, महज़ शरारत थी। मलिका शरारत से मुस्कुराती
रही। दो-एक मिनट हाथ कसकर पकड़ने के बाद मलिका ने गिरफ़्त ढीली
कर दी। कुँवारा शाही हाथ चूमकर सेसिल फिर खड़ा हो गया।
मलिका ने ख़ादिमा को मेज़ वाली कुर्सी लाने को
कहा। कुर्सी आ गई और ख़ादिमा को बाहर जाने का कहकर मलिका ने सेसिल को बैठने का
इशारा किया। कुर्सी आग से ज़रा दूर थी और सेसिल अभी भी ठिठुर रहा था। उसने कुर्सी
उठाकर आग के क़रीब की और मलिका के सामने बैठ गया।
"जी मलिका,
आप
उस्मानी सल्तनत से व्यापार के बारे में मशवरा करना चाहती हैं?"
"नहीं सेसिल, वह
तो मैं 'तुर्की कंपनी' का चार्टर दस्तख़त
कर चुकी हूँ। अब व्यापार शुरू होगा और देखते हैं क्या होता है।"
"अच्छा ही होगा मलिका, हिन्द
महासागर और भूमध्य सागर में स्पेनिश और पुर्तगाली समुद्री
जहाज़ों से उस्मानी खलीफ़ा भी परेशान है और हम भी।
हिन्दुस्तान से यूरोप में सारे व्यापार पर तो यही क़ाबिज़ बैठे
हैं।"
"तुम्हारे ख़दशे जायज़ हैं सेसिल। ये दोनों
पहले ही भूमध्य सागर और यूरोप के ज़मीनी रास्तों पर क़ाबिज़ होकर उस्मानी व्यापार को
नुक़सान पहुँचा रहे थे। अब जब से वास्को डी
गामा ने हिन्द महासागर का
समुद्री रास्ता भी ढूँढ लिया है,
बात
और बढ़ गई है। पुर्तगाली अब हिन्दुस्तान की गोवा बंदरगाह पर जा बैठे हैं
जिसकी वजह से उस्मानी व्यापार और कम होता जा रहा है। इसलिए तुर्की हमारा साथ ज़रूर
देगा।"
"जी मलिका,
अभी
तक तो खलीफ़ा मुझे समझदार ही लगता है।"
"हाँ," मलिका ने सेसिल से भी
ज़्यादा फूला हुआ अपना गहरा बैंगनी फूलदार फ़्रॉक ज़रा ठीक करते
हुए कहा, "बुद्धिमान ही लगता है, मगर मैं खलीफ़ा से ज़्यादा उसकी मलिका पर भरोसा
किए बैठी हूँ।"
"जी मलिका,
सफ़िया
सुल्तान यूरोपीय भी हैं, समझदार भी और उनका प्रभाव भी
दरबार में ज़्यादा है।"
यह सारी बातें वह 'तुर्की कंपनी' को
चार्टर देने के फ़ैसले के दौरान कई बार कर चुके थे और अब सेसिल फिर वही बातें करके
झुँझलाता जा रहा था।
"मलिका,
अब
आप किस मामले पर बात करना चाहती हैं?"
मलिका कुछ देर चुप रही। आग की पीली रौशनी
उसके बहुत ही सफ़ेद चेहरे को पीला कर रही थी। सेसिल समझ गया
कि मलिका के मन में कुछ बड़ा चल रहा है। उसने मन को ज़रा और एकाग्र किया और इंतज़ार करने लगा, देखो, अब
कौन सा नया विचार लेकर आती हैं मलिका।
"मैं चाहती हूँ तुम किसी समझदार व्यक्ति को
हिन्दुस्तान भेजो।"
बात सेसिल की समझ में न आई। यह क्या कह रही
है?
मगर वह बोला कुछ नहीं।
"मैं चाहती हूँ कोई भेष बदलकर हिन्दुस्तान जाए, मुग़ल शहंशाह अकबर से मिले और उसे मनाए कि वह
पुर्तगालियों को अपने मुल्क से निकाले।"
सेसिल अब भी चुप रहा, मगर उसका दिमाग़ भौंरे की भाँति चलने लगा था। मलिका ठीक सोच रही थी। अकबर एक खुले दिमाग़ का बादशाह था जबकि
पुर्तगाली कट्टर यीशुवादी कैथोलिक थे। इस बात पर अकबर को
उनके ख़िलाफ़ किया जा सकता था।
पुर्तगाली हिन्दुस्तान में गोवा की बंदरगाह
पर बस्ती बनाकर मनमानी कर रहे थे।
जहाज़रानी में मुग़लों से
श्रेष्ठता की वजह से अरब सागर के व्यापार पर भी उनका क़ब्ज़ा था। अगर हिन्दुस्तान और
यूरोप के दरमियान व्यापार अंग्रेज़ों के हाथ आ जाए तो वे अकबर
को ज़्यादा कर देंगे जिसमें अकबर का फ़ायदा ही फ़ायदा है, वह अंग्रेज़ों के साथ मिल सकता था। इस वक़्त
उस्मानियों के संबंध न मुग़लों से अच्छे थे न
पुर्तगालियों से। अगर हिन्दुस्तानी व्यापार हमारे हाथ आ जाए तो हम हिन्दुस्तान और
उस्मानी सल्तनत के बीच भी व्यापार का पुल बन सकते हैं। यह तीनों मुल्कों के लिए लाभदायक होगा।
"मलिका-ए-आलिया, आपने
वाकई अद्भुत बात सोची है।" सेसिल
ने दिल से मलिका की तारीफ़ की।
"मलिका-ए-आलिया, मेरे
ज़हन में एक नौजवान है, फ़्रांसिस बेकन। नौजवान दार्शनिक है। पढ़ा लिखा भी है और
समझदार भी। उसे भेजा जा सकता है।"
"यह दार्शनिकों का काम नहीं सेसिल, किसी चतुर राजनयिक को भेजो।"
सेसिल मुस्कुराया।
"मलिका,
चतुर
राजनयिक मैं उसके अनुवादक के तौर पर भेजूंगा। बादशाह दर्शनशास्त्र का शौक़ीन है और उलेमा की
बहसें करवाता है, दार्शनिक नौजवान के ज़रिए
उस तक पहुँचना आसान रहेगा।"
कुस्तुनतुनिया
बंदरगाह
"सुनहरी सींग" बंदरगाह
एक चित्रकला का शाहकार लगती थी। रंगीन, विशाल और शानदार। भीड़ लगी
थी। छोटे-बड़े कई जहाज़ आ-जा रहे थे। अंग्रेज़ कंपनी के जहाज़ ने लंगर डाला। वह बड़े जहाज़ों में शामिल था। फिर भी बर्कले इतने जहाज़, इतनी नस्लों के लोग और इतनी हलचल देखकर हक्का-बक्का रह गया। बड़ी बात नहीं थी
कि वह नाव पर बैठने से पहले अच्छी तरह फिर तैयार हुआ था और अपने पदक चमकाकर और बाल दोबारा सँवारकर बंदरगाह
जाने के लिए नाव पर बैठा।
रस्सी की सीढ़ी पर
पैर रखते ही उसे गरम धूप का एहसास हुआ। उसने आसमान की तरफ़ देखा, इतना निर्मल नीला रंग उसने ब्रिटेन में
कभी नहीं देखा था। आज उसे समझ आई कि आसमानी नीला रंग क्या होता है। दूसरा पैर
सीढ़ी पर रखा तो सिर पर दरियाई परिंदे चीं-चीं करते उड़ते महसूस हुए। एक
अजीब तरह की भरी-पूरी ज़िंदगी का एहसास उसके रग-रग में समा गया।
छोटी-सी नाव डोलती-डोलती बंदरगाह की तरफ़ तैरने लगी और एक चमक उसकी आँखों में पड़ी। गहरे नीले पानी में
सूरज की किरणें जैसे खेल रही थीं। एक जहाज़ के पास से गुज़रे तो देखा कि रोमानिया के व्यापारी हब्शी ग़ुलामों से शीशे के
सामान की पेटियाँ नावों में लदवा रहे थे। साथ के एक जहाज़ में मिस्री व्यापारी
अपने ग़ुलामों से नाव से कपड़ों के थान जहाज़ में उतरवा रहे थे।
जहाज़ों, नावों और लंगरों से
बचते-बचाते नाव बंदरगाह की तरफ़ बढ़ती रही।
बंदरगाह पर उतरकर बर्कले को समझ नहीं आ रही
थी कि क्या करे। दुनिया की हर नस्ल का व्यक्ति वहाँ मौजूद था और व्यापारिक सामान की हज़ारों पेटियाँ
हर तरफ़ बिखरी पड़ी थीं। इतने में एक तुर्क सिपाही ने भाँप लिया
कि वह यहाँ पहली बार आया है। सिपाही ने बर्कले को पीछे आने का इशारा किया और शहर
की तरफ़ चल पड़ा। बर्कले और उसके दो अफ़सर सिपाही के पीछे चल पड़े।
ऊँची टोपी, लंबा कोट और पायजामे के
ऊपर पिंडलियों तक के जूते पहने उसे रास्ते में कई और भी तुर्क सिपाही और अफ़सर नज़र
आए। शक्ल से पहले नस्ल अपने
लिबास से पहचानी जाती थी। यूरोपियों
के लंबे कोट, मुसलमानों के चोग़े और
हिन्दी व ईरानी व्यापारियों के कुर्ते-धोतियाँ और शलवारें, रंग नज़र आने से पहले ही उनकी नस्ल बता देते
थे।
बर्कले ने दो-तीन बार साथ लाने वाले सिपाही
से बात करने की कोशिश की मगर वह अनसुनी करता रहा। उसके एक अफ़सर ब्लैक को फ़ारसी आती
थी, उसने भी कोशिश की मगर कुछ
न बना। बर्कले को भी अंदाज़ा था कि आम बोलचाल की भाषा तुर्की थी और
फ़ारसी आम लोग नहीं समझते होंगे,
फिर
भी उसने कोशिश बार-बार की। क़िस्मत
आज़माने में हर्ज ही क्या था।
इंसानों को धक्का मारते और घोड़ा-गाड़ियों से बचते-बचाते वे बड़ी मेहराबों वाली एक इमारत में जा
घुसे। सीढ़ियाँ चढ़कर आगे बड़ा-सा बरामदा था जिसके सिरे पर मेहराब
की शक्ल का एक विशालकाय दरवाज़ा था। दो दरबान
दरवाज़े पर मुस्तैद खड़े थे। अंदर दाख़िल हुए
तो दो और दरबान गलियारे में खड़े थे। आगे एक और दरवाज़े के आगे फिर दो दरबान खड़े
थे। इन्होंने रोक लिया। सिपाही ने उनसे कुछ कानाफूसी की और एक दरबान अंदर चला
गया।
थोड़ी देर बाद दरबान ने साथ लाने वाले सिपाही
को अंदर बुला लिया। तीनों अंग्रेज़ दरबानों के पास अकेले रह गए। बैठने की कोई जगह
नहीं थी, वे खड़े रहे। आधे घंटे बाद
दरबान ने दरवाज़े में से मुँह निकालकर तीनों को ग़ौर से देखा और बर्कले के चमकदार पदकों से अनुमान लगाया
कि वही तीनों में से अफ़सर है। बर्कले को अंदर आने का इशारा हुआ। बर्कले ने अपने
अफ़सरों को भी साथ आने का इशारा किया मगर दरबान ने रोक लिया। "फ़ारसी, फ़ारसी," बर्कले ने अपने फ़ारसी वाले अफ़सर के कंधे पर हाथ रखकर कहा।
दरबान ने एक मिनट सोचा फिर बात समझकर तीनों को जाने दिया।
यह एक बहुत बड़ा कमरा था। ऊँची छत कमरे को और
भी बड़ा कर रही थी। बड़ी-बड़ी खिड़कियाँ छत तक जाती थीं जिससे कमरा ख़ूब प्रकाशमय था। लकड़ी के फ़र्श पर चलते
अंग्रेज़ी जूतों की एड़ियाँ 'ठक-ठक' बजतीं
बर्कले को परेशान कर रही थीं। एक दीवार के साथ नीले और हरे रंग का ईरानी क़ालीन
बिछा था। क़ालीन पर बग़ैर
पाँवों का एक मेज़ पड़ा था जिसके
पीछे भारी चोग़ा और बड़ी
पगड़ी बाँधे एक तुर्क बैठा था।
उसके सामने दो तुर्क अफ़सर हाथ बाँधे विनम्रता से बैठे थे। चार छोटे अफ़सर
एक ओर खड़े थे।
दरबान ने खड़े अफ़सरों की तरफ़ इशारा किया कि
वहाँ जाकर खड़े हो जाओ। चोग़े वाले ने उनकी तरफ़ देखा और बर्कले ने हाथ सीने पर रखकर
ऊँची-सी आवाज़ में कहा, "सलाम।"
चोग़े वाले ने सिर हिलाकर सलाम क़बूल किया। आगे
से ब्लैक ने फ़ारसी में बात की।
"सर, मैंने इन्हें बताया है कि
हम ब्रिटेन की मलिका की चार्टर्ड 'तुर्की
कंपनी' के अफ़सर हैं और कंपनी का
व्यापारिक जहाज़ लेकर आए हैं।"
"तो आगे से बोल क्यों
नहीं रहा?" बर्कले ने चोग़े वाले पर ही
आँखें जमाए पूछा।
"सर, पूरब की रस्म यही है, जल्दी करने वाले को यहाँ मूर्ख समझा जाता है।" ब्लैक
की नज़रें भी चोग़े वाले पर ही टिकी थीं।
"इसे फ़ारसी समझ भी आती है?" जवाब न मिलने पर बर्कले परेशान था।
"कुछ पता नहीं सर, देखते
हैं।"
कुछ देर बाद चोग़े वाले ने सिर का इशारा किया
और एक खड़े अफ़सर ने फ़ारसी में ब्लैक को कुछ कहा।
"सर, ये व्यापार का अनुमति-पत्र माँग रहे हैं।"
बर्कले ने धन्यवाद देते
हुए अपने कोट की जेब से कंपनी का चार्टर और खलीफ़ा का अनुमति-पत्र निकाला। अभी वह
सोच ही रहा था कि यह किसे दे कि ब्लैक ने कागज़ात पकड़कर बात करने वाले खड़े
अफ़सर को सौंप दिए। उसने आगे एक बैठे अफ़सर को, जिसने अदब से घुटनों के बल उठकर चोग़े वाले के
आगे मेज़ पर खोलकर दोनों कागज़ रख दिए। चोग़े वाले ने एक नज़र कागज़ों पर डाली फिर
खलीफ़ा का अनुमति-पत्र उठाकर लाल रंग की मोमी मुहर को ग़ौर से देखा। संतुष्टि हो गई तो कागज़ वापस रख
दिया।
बैठे अफ़सर ने उठाकर कागज़ खड़े वाले को थमा
दिए जिसने ब्लैक को, और फिर कुछ कहा।
"सर, यह कह रहे हैं हमारा स्वागत है।"
"गुड।" बर्कले बोला। न कोई कुछ बोला न कोई हिला। बर्कले भ्रमित हो गया।
"अब क्या करना है?"
"अब आज्ञा लेकर बाहर जाना है
सर।"
दोनों की नज़रें लगातार चोग़े वाले पर ही जमी थीं।
"मगर हमने तो मलिका से मिलना है।"
"उसके लिए हमें राजमहल जाना चाहिए सर।"
"इनसे पूछो मलिका सफ़िया
सुल्तान को कहाँ मिला जा सकता
है।"
ऐसा हुआ जैसे सभा पर तेज़ाब छिड़क दिया गया हो। सबने
यूँ सिर उठाकर बर्कले की तरफ़ देखा जैसे साँप डंक मारने के लिए फन उठाता है। तीनों अंग्रेज़ अफ़सर डर गए।
ब्लैक ने झुककर फ़ारसी में 'आदरणीय मलिका, आदरणीय
मलिका' कहा।
बर्कले ने उसके कान में कहा कि चोग़े वाले को बताए कि बर्कले मलिका एलिज़ाबेथ प्रथम
का एक ख़ास पैग़ाम मलिका सफ़िया सुल्तान के
लिए लाया है।
ब्लैक ने यह बात बताई तो चोग़े वाले ने हाथ
आगे कर दिया।
"ब्लैक इसे बताओ कि वह पैग़ाम मैं सिर्फ़ मलिका को ही दूँगा, और किसी को नहीं।"
ब्लैक दो सेकंड हिचका, फिर
सिर झुकाकर कहा कि मलिका ब्रिटेन की ख़ास हिदायत है कि पैग़ाम सिर्फ़ मलिका
को ही दिया जाए।
पहली बार चोग़े वाला बोला। उसकी फ़ारसी धाराप्रवाह थी।
"उस्मानी सल्तनत की मलिका हर किसी से नहीं मिलतीं।"
"एक मलिका का पैग़ाम दूसरी मलिका तक पहुँचाना आवश्यक है।" ब्लैक दरबारियों
की मनोवृत्ति समझता था।
"मैं पैग़ाम मलिका-ए-आलिया तक पहुँचा सकता हूँ, तुम लोगों को नहीं।" चोग़े वाले ने कहकर
मुँह दूसरी तरफ़ कर लिया।
ब्लैक से इस बातचीत का अनुवाद सुनकर बर्कले
ने कहा फिर चलते हैं यहाँ से। वे चोग़े वाले की
आज्ञा लेकर बाहर आ गए।
टोपकपी महल
उस्मानी सल्तनत के ख़लीफ़ा, सुल्तान मुराद तृतीय की अल्बानियाई प्रेमिका, मलिका सफ़िया सुल्तान, अपने कक्ष में झूले पर अर्ध-विश्राम मुद्रा में थी। काले काठ के झूले पर मोटे
क़ालीनों के ऊपर गाओ तकिए रखे हुए थे और मलिका हुक़्क़ा पी रही थी। दरबारी अमीर उसे 'नागिन' कहते थे। साँप की कोमल चाल से वह हर किसी के सिरहाने पहुँच जाती और
उसका डसा कभी पानी नहीं माँग सका था। इस विषैले
आकर्षण का गुप्त नाम 'नागिन' ही
हो सकता था। पीछे दो
दासियाँ झूले को हर झोंके पर
आहिस्ता से हिला देती थीं। साथ ही आग़ा खड़ा था।
गोरा-चिट्टा ग़ज़नफ़र आग़ा महल के ख़्वाजासराओं का सरदार था। उसके
इतालवी मूल के लंबे, छरहरे बदन पर लटकता चोग़ा मलिका
के चोग़े से हरगिज़ कम नहीं था। मगर चोग़े पर टँके किसी भी नगीने में
आग़ा की आँखों जितनी तेज़ चमक नहीं थी। ख़लीफ़ा, मलिका
और वालिदा सुल्तान के अलावा सल्तनत का हर व्यक्ति उसकी बात साँस रोककर सुनता। वैसे भी उसके जबड़े की उभरी हुई
हड्डियों के हिलने से हर कोई भयभीत रहता। उसके शब्दों का वज़न शाही फ़रमान से किसी
भी तरह कम नहीं होता था।
सामने क़ालीन पर एक ईरानी अग्नि-पूजक (पारसी), सफ़ेद
चोग़ा और गोल टोपी पहने बैठा था।
"मलिका-ए-आलिया, हासकी
सुल्तान! पूज्य मोबद ईरानी पारसियों के आध्यात्मिक
पिता हैं।" ग़ज़नफ़र ने अग्नि-पूजक का परिचय कराया।
मलिका का हुक़्क़ा गुड़गुड़ाया।
"मलिका,
पूज्य
मोबद कई वर्षों से हिंदुस्तान में निवास कर रहे हैं।"
मलिका का हुक़्क़ा गुड़गुड़ाया।
"मलिका-ए-आलिया, पूज्य
मोबद पारसियों के महान विद्वान,
दस्तूर
मेहरजी राणा के शिष्य हैं।"
मलिका का हुक़्क़ा गुड़गुड़ाया।
"मलिका-ए-मोअज़्ज़मा, पूज्य
मोबद महान दस्तूर के साथ हिंदुस्तान के
बादशाह अकबर से भी मिलते हैं।"
इस बार मलिका का हुक़्क़ा शांत रहा।
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ग़ज़नफ़र आग़ा मलिका सफ़िया सुल्तान के कक्ष से
निकला तो एक कनीज़ उसके सामने आ खड़ी हुई।
"साहस की सराहना है।" ग़ज़नफ़र गर्दन
टेढ़ी करके मुस्कुराया। उसके कान में पड़ी बाली झूलने लगी और उसमें जड़ा कीमती
हीरा हर झोंके पर चमकने लगा।
"महान आग़ा के लिए एक अनोखा उपहार पेश करती हूँ।"
कनीज़ ने एक रेशमी पोटली उसके आगे कर दी।
ग़ज़नफ़र कुछ देर याक़ूत को देखता रहा। यह तसल्ली
करके कि पत्थर कीमती था, उसने नज़रें कनीज़ की तरफ़
कीं। बोला कुछ नहीं।
"एक अंग्रेज़ अफ़सर मलिका से मुलाक़ात चाहता है।"
ग़ज़नफ़र की मुस्कुराहट लुप्त हो
गई।
"मलिका ब्रिटेन का पत्र लेकर आया है।" कनीज़
ने घबराकर जल्दी से कहा।
ग़ज़नफ़र ने कनीज़ के हाथ में चमकते पत्थर को
दुबारा देखा, फिर कनीज़ की तरफ़ देखा।
"इस अंग्रेज़ अफ़सर ने महान आग़ा के लिए पैग़ाम भेजा है, वह आग़ा से स्वयं मिलकर कुछ उपहार आग़ा की नज़र करना चाहता
है।"
ग़ज़नफ़र ने माणिक्य कनीज़
के हाथ से पकड़ा और आगे बढ़ गया। कनीज़ बेचैन होकर उसके पीछे दौड़ी।
"महान आग़ा!"
"अगले महीने।" ग़ज़नफ़र ने मुड़े बग़ैर कहा और निकल गया।
कनीज़ ने रुककर अपनी चोली पर हाथ रखकर लंबी
साँस ली। चोली में पड़ी
मोहरें सार्थक हो गई थीं। अब आग़ा से
मुलाक़ात के लिए इससे दुगुनी मोहरें लूँगी। सोचकर वह मुस्कुराई।
गोवा
पवित्र पादरी "रोडॉल्फो एक्वाविवा" आहिस्ता-आहिस्ता चलते बाज़ार की तरफ़ जा रहे
थे। सड़क किनारे लगे नारियल के वृक्षों की झूलती हुई
छाया पुर्तगाली पादरी को भली लग
रही थी।
एक तरफ़ बंदरगाह थी। कोई जहाज़ आ रहा था, कोई जा रहा था। किसी ने पाल खोले
थे किसी के समेटे हुए थे। किसी में से व्यापारिक सामान उतारा जा रहा था किसी में
रखवाया जा रहा था। नावें जहाज़ों और बंदरगाह के दरमियान सामान और लोगों को इधर-उधर
कर रही थीं। कुछ बैलगाड़ियाँ सामान की पेटियाँ लादकर बाज़ार को जा रही थीं कुछ
जहाज़ों पर लदवाने के लिए आ रही थीं। पादरी रोडॉल्फो ने बंदरगाह की तरफ़ देखा जहाँ
अरब सागर में दूर-दूर तक जहाज़ ही जहाज़ दिखाई देते थे। कोई जहाज़ ईरान से आया था और
कोई मिस्र जाने के लिए तैयार था।
हवा का एक झोंका आया तो पादरी के नथुनों में जैसे सुगंधों का तूफ़ान आ
गया। हल्दी, दालचीनी, काली मिर्च, नमक, बारूद, गीली
लकड़ी, ताज़ा मछली, समुद्र के पानी और न जाने और कौन-कौन सी
सुगंधों ने मिलकर उसके नथुनों में सुगंधों का मीना बाज़ार सजा दिया। खुली स्वच्छ धूप
में उसका बदन पिघलकर खिलने लगा। सूरज की गर्माहट ने उसमें नई जान डाल दी।
आहिस्ता-आहिस्ता उसके सामने फैली तस्वीर में जान पड़ने लगी।
एक काला हब्शी अपनी पिटारी खोले साँप का तमाशा दिखा
रहा था। एक तरफ़ एक जादूगर मुँह में से आग निकालकर दिखा रहा था। दूसरी तरफ़ एक अरबी
और ईरानी सौदे पर बहस कर रहे थे। उधर लंबे कोट पहने यहूदी व्यापारी एक व्यापारी से
वस्तुएँ ख़रीदकर वहीं दूसरे को बेच रहे थे। एक तरफ़ चोग़े पहने अरबी व्यापारी खजूरें
बेचते फिरते थे। वहाँ दुनिया की हर नस्ल का व्यक्ति मौजूद था।
हब्शी ग़ुलाम, हिन्दुस्तानी, ईरानी, तुर्क, उज़बेक, अर्मेनियाई, अल्बानियाई, हंगेरी, फ़्राँसीसी, इतालवी, अरबी, यूनानी, यमनी, कुर्द, मिस्री और न जाने और किन-किन मुल्कों के
व्यापारी हर तरफ़ बिखरे पड़े थे। कोई अपना सामान उतरवा रहा था कोई रखवा रहा था, कोई सौदे कर रहा था और कोई छकड़ों पर पेटियाँ
रखवाकर शहर की तरफ़ ले जा रहा था। पेटियों के अंबार लगे
थे और साथ ही छकड़ों की
क़तारें लगी थीं।
बड़े-बड़े जहाज़ दूर-दूर तक फैले थे।
ऊँचे-ऊँचे पाल, व्यापारिक सामान की पेटियाँ ही पेटियाँ और हर
रंग व नस्ल का इंसान देखकर पादरी ने प्रभु की
महिमा का जाप किया।
पादरी प्रकाशमय दिन के इस हसीन नज़ारे पर
एक नज़र डालकर बाज़ार की तरफ़ मुड़ गए।
बाज़ार उसे हमेशा से ही पसंद था। यहाँ आकर
पादरी को जीवन का एहसास होता था, और साथ ही दुनिया की हर नस्ल को ईसाईयत में दाख़िल करने की तड़प भी। और इससे भी बढ़कर यह तड़प कि वह काफ़िर प्रोटेस्टेंट अंग्रेज़ों को यीशुवादी कैथोलिक बना दे।
गोवा का बाज़ार भी एक रंगीन दुनिया थी। एक
दुकान पर गुजराती व्यापारी मलमल के थान सजाए बैठे थे और अगली दुकान पर
अर्मेनिया के व्यापारी
चीनी-मिट्टी के नीले काम वाले बर्तन
बेच रहे थे। एक अरबी व्यापारी खजूरें लगाए बैठा था जिसके साथ एक पंजाबी सौदा तय करने की कोशिश कर
रहा था। सामने बीजापुर का एक व्यापारी रेशमी
साड़ियाँ बेचता था और एक
फ़्राँसीसी व्यापारी दाम घटाने के लिए मोलभाव कर रहा था। बीच में
टोकरियों में ताज़ा सब्ज़ियाँ और मछलियाँ सजाए रंगीन साड़ियाँ पहने देसी औरतें आवाज़ें
लगा रही थीं। उस तरफ़ एक दुकान पर यहूदी बाप-बेटा कीमती पत्थर रखे बैठे थे। आगे मसालों की दुकानें थीं जिनमें
दालचीनी, काली मिर्च, हल्दी, लौंग, लोबान, चीनी, नमक और अन्य कई मसालों की ढेरियाँ लगी थीं और फ़्राँसीसी, इतालवी, पुर्तगाली, अर्मेनियाई, अल्बानियाई, तुर्क और भी कितनी ही नस्लों के ग्राहकों की भीड़ लगी थी। सबसे ज़्यादा भीड़ नील बेचने वाली दुकानों पर था। पादरी के नथुनों
में शोर मचाती ताज़ा मछली और सब्ज़ियों की सुगंधों को अब मसालों की तीक्ष्ण सुगंधें
पीछे छोड़ती जा रही थीं। चोग़े पहने, कुर्ते
पहने, कोट पहने, पगड़ियाँ और टोपियाँ पहने, पायजामे, टोपी, शलवारें और धोतियाँ पहने हर नस्ल का व्यक्ति
देखा जा सकता था।
बाज़ार पार करके पादरी वायसराय के
महल की तरफ़ मुड़ गए।
अब रास्ते में बड़े-बड़े गुंबदों वाले गिरजाघर और ऊँची छतों
और बरामदों वाले खुले-खुले घर थे। यह सब ही पुर्तगाली वास्तुकला पर बनाए गए थे मगर गोवा की गरम और नम जलवायु के पेश-ए-नज़र छतें ऊँची और खिड़कियाँ
बड़ी-बड़ी थीं।
"डो फ़्रांसिस्को मस्करेन्हास" गोवा में नया पुर्तगाली वायसराय आया था।
पादरी रोडॉल्फो उसके दफ़्तर में दाख़िल हो गए।
यह एक बहुत ही बड़ा कमरा था। काठ का फ़र्श और
काठ की छत, जिससे बड़े-बड़े तीन झाड़फ़ानूस लटक रहे थे। दीवारों पर
पुर्तगाली और स्पेनिश बादशाह और मलिका की पूर्ण-आकार तस्वीरें और यूरोप, अमेरिका, अफ़्रीका
और एशिया में पुर्तगाली
बस्तियों के बड़े-बड़े नक़्शे टंगे
थे। हर दूसरी वस्तु
पके खजूर के रंग की थी फिर भी छत तक
जाती खिड़कियों से स्वच्छ धूप छन-छनकर आती कमरे को प्रकाशित किए
हुए थी।
बीच वाले झाड़फ़ानूस के नीचे एक बड़ा मेज़ और राजसी कुर्सी पड़ी थी। वायसराय लंबा
कोट, लंबे जूते, पायजामा और शुतुरमुर्ग के पंख जड़ी हैट पहने
बैठा था। पादरी उसके सामने जाकर बैठ गए। वायसराय ने हाथ का इशारा किया और सब बाहर
चले गए।
"पादरी आप शहंशाह अकबर के इबादतखाने कब जा रहे हैं?"
"दो हफ़्तों तक निकलूँगा।"
"आपको यक़ीन है न कि शहंशाह से आपकी मुलाक़ात होगी?"
"शेख़ अबुल फ़ज़ल की तरफ़ से ख़ास पैग़ाम आया
है। बादशाह ने दो महीनों तक महफ़िल रखनी है। प्रभु ने चाहा तो ज़रूर मुलाक़ात
होगी।"
"पादरी आप किसी तरह, किसी
भी तरह शहंशाह को ईसाई कर सकते हैं?"
"मेरे बच्चे मैं अपना काम कर रहा हूँ, जो प्रभु की तरफ़ से मेरे ज़िम्मे लगाया गया
है। अगर उसकी मर्ज़ी हुई तो बादशाह ज़रूर सत्य को पा लेगा।"
वायसराय बड़ा चतुर राजनयिक
था। वह पादरी की अस्पष्ट बात पर झुँझला गया। मगर
उसे मालूम था कि पादरी भले ही पादरी थे, मगर
वह एक बड़े विद्वान थे और उन्हें राजनय की कला पर भी निपुणता थी।
"पादरी मैंने सुना है शहंशाह इस्लाम से विद्रोही है और वह किसी और दीन में
दाख़िल होना चाहता है?"
"बादशाह इस्लाम से नहीं, मुसलमान
विद्वानों से विद्रोही हुआ है।"
"और इस बात को खींचकर उसे इस्लाम से विद्रोही
नहीं किया जा सकता?"
"आप जानते हैं कि बादशाह अनपढ़ ज़रूर
है मगर अज्ञानी नहीं। उसे अच्छे-बुरे की
अच्छी पहचान है।"
"पादरी आप ईसाईयत को अच्छा साबित करने की उज्ज्वल मिसाल भी हैं और इसकी सच्चाई को साबित करने के तर्कों के भी विशेषज्ञ हैं। मुझे यक़ीन है कि आप
शहंशाह को क़ायल कर सकेंगे।"
पादरी चुप रहे। वायसराय जवाब का इंतज़ार करता
रहा। जब तक पादरी ख़ुद न बोले।
"बादशाह अकबर रोशन-ख़याल ज़रूर है, मगर वह बुद्धिमान भी है। अगर उसका एक नवरत्न खुले
मन का इस्लामी विद्वान अबुल फ़ज़ल है तो दूसरा नवरत्न कट्टर मुल्ला बदायूनी है।"
"पादरी वह रोशन-ख़याल है, अपने
दीन से विद्रोही है, कोई दूसरा मज़हब अपनाने के
लिए दूसरे मज़हबों के पादरियों और पंडितों से सलाह ले रहा है, क्या आप बाक़ी धर्मों के मुक़ाबले में ईसाईयत
को सच साबित नहीं कर सकते?"
"जनाब वायसराय, जिस
तरह मैंने विनती की, बादशाह दीन से नहीं मुसलमानों से विद्रोही
है।"
"पादरी मैंने सुना है अगर शहंशाह किसी भी दीन से संतुष्ट न हुआ तो वह अपना नया दीन
निकाल लेगा।"
"सुना तो यही है।"
"पादरी इस तरह तो हर दीन के लोग उसके ख़िलाफ़ नहीं हो जाएँगे?"
"यह हिंदुस्तान है वायसराय, पुर्तगाल
नहीं। यहाँ दीन के नाम पर हुक़ूमत हो तो धर्मनिष्ठ आपस में लड़ते हैं, अगर हुक़ूमत दीन पर न हो तो सारे बादशाह के वफ़ादार रहेंगे। यह बात बादशाह
समझता है।"
"और पादरी फिर आप शहंशाह को किस तरफ़ धकेल रहे
हैं?"
"अंग्रेज़ कुस्तुनतुनिया पहुँच गए हैं और उनका अगला
क़दम हिंदुस्तान पड़ना है। इससे पहले कि अंग्रेज़ हमें बद्दायूनी से जोड़ें, मैं उसे यक़ीन दिला दूँगा कि हम ईसाईयत के
अबुल फ़ज़ल हैं।" यह कहते पादरी के चेहरे पर घृणा आ
गई।
वायसराय को हँसी आ गई।
"पादरी यह तो दिन को रात
करने वाली बात है। बादशाह आपकी यह
बात किस तरह मानेगा?"
"अंग्रेज़ समझदार हैं, खुले
मन के नहीं। कुछ अर्सा क़ब्ल ही उनकी विधानसभा ने चुड़ैलों को पकड़ने और मारने का क़ानून पास किया है।
मैं देखूँगा इसे वह खुले मन से कैसे मिलाते हैं।"
पादरी ने विषैली मुस्कुराहट
के साथ कहा, और जारी रहे।
"इसके अलावा हमारी बच्ची मारिया बादशाह की मलिका है आदरणीय
वायसराय। मैं उससे मिलूँगा। वह हमारे बड़े काम आ सकती है।"
वायसराय की आँखें चमक उठीं।
फ़तेहपुर सीकरी
फ़्रांसिस बेकन जिस वक़्त पर फ़तेहपुर सीकरी के सामने पहुँचा, सूरज सुनहरे से गहरा नारंगी हो
चुका था।
बेकन का मन विस्मय से
भर गया। उस टीले से सारा शहर एक कलेजी रंग
के ईरानी क़ालीन की तरह बिछा दिखाई देता था। शहर की हर बड़ी इमारत लाल पत्थर की थी और न जाने कैसा
पत्थर था जो डूबते सूरज की लाल रौशनी में दहकते कोयले की भाँति लपटें मार रहा था।
उसकी حیرت देखकर साथ आया अनुवादक उसे विभिन्न इमारतों के
बारे में बताता जाता।
पंच महल देखकर तो उसके क़दम जैसे जम ही गए। इतनी ख़ूबसूरत पाँच
मंज़िला इमारत, उसे लगा जैसे वह 'अलिफ़ लैला' की दुनिया में आ गया हो।
जब अनुवादक ने उसे बताया कि यह शाही हरम का महल है और इस तरह अभिकल्पित किया गया है कि इसकी ऊपरी
मंज़िलों में हर वक़्त तेज़ हवा चलती रहती है तो वह दंग ही
रह गया।
शहर के अंदर से गुज़रते हर एक वस्तु पर बेकन
दंग रह जाता। इमारतों के पास से गुज़रता और पत्थरों पर हुआ बारीक़ काम
देखकर मुग्ध होता। चौड़ी और फ़ुटे से नापी सीधी सड़कें देखकर हिन्दुस्तानी ज्ञान, कला और शिल्प की महानता उस पर छा गई।
जामा मस्जिद देखकर उसकी आँखें खुली रह गईं। मस्जिद के गुंबद की विशालता देखकर उस पर भय मिश्रित श्रद्धा छा गई। जामा मस्जिद के
पीछे ही अबुल फ़ज़ल का घर था। घर के सामने एक बड़ा बरामदा था।
बाहर खड़े दरबानों ने बातचीत पूछकर अंदर सूचना दी और आज्ञा मिलने पर अंदर
जाने का इशारा किया।
अंदर दाख़िल हुए तो एक बड़ा हॉल कमरा था। कमरे की छत, उसके स्तंभों और फ़र्श पर हुआ बारीक़ काम
देख-देखकर बेकन मन ही मन
हुनरमंदी और उत्तम रुचि
की सराहना करता।
थोड़ी देर बाद ही अबुल फ़ज़ल आ गया। येमेनी नैन-नक्श वाला राजस्थानी।
मध्यम क़द, हल्की दाढ़ी। सिर पर भारी
राजस्थानी पगड़ी और हल्के नारंगी रंग के चोग़े पर हरी रेशमी शाल। बेकन ने झुककर सलाम किया। अबुल फ़ज़ल ने भी
झुककर "अल्लाह-ओ-अकबर" कहा।
अनुवादक ने परिचय करवाया कि यही वह अंग्रेज़ी दार्शनिक हैं जो पूरब का ज्ञान
ढूँढने आए हैं।
"मुझे आपका बड़ा इंतज़ार था। मैं भी हिंदुस्तान की तारीख़ लिख रहा हूँ। आपसे बातचीत
करके मुझे भी सीखने का मौक़ा मिलेगा।"
"आदरणीय अबुल फ़ज़ल, यह
क्या कह रहे हैं आप? आप जैसे विद्वान को तो
देखना ही बड़ी ख़ुशक़िस्मती है,
कहाँ
आपने मुलाक़ात का सौभाग्य बख़्शा।"
"यह आपकी उदारता है जनाब बेकन। मैंने आपकी नौसेना और आपके उस्मानी सल्तनत के
साथ व्यापारिक संबंधों के बारे में सुना है।"
बेकन को आघात लगा।
हिन्दुस्तानी दुनिया से इतने कटे हुए नहीं थे जितना वह समझे बैठा था।
"आदरणीय अबुल फ़ज़ल, यह शासकों की बातें हैं, मैं इनके बारे में ज़्यादा नहीं जानता। मैं तो
एक आम-सा विद्यार्थी हूँ।"
"बहुत ख़ूब,
आप
किस मुल्क की तारीख़ लिख रहे हैं?"
"जी मैंने यूरोप की बड़ी शक्तियों की तारीख़ पढ़ी है। और पढ़ते हुए मुझे एहसास
हुआ कि पूरब की तारीख़ के बारे में हमारे लोगों को ज़्यादा नहीं मालूम, इसलिए हिंदुस्तान के महान मुल्क की तारीख़
ढूँढने यहाँ आया हूँ। फिर पता चला कि हिंदुस्तान की तारीख़ आप जैसा विद्वान लिख रहा
है तो मैंने सोचा कि आपकी हिन्दुस्तानी तारीख़ का ही अनुवाद कर लूँगा। अगर आपकी
हिन्दुस्तानी तारीख़ की एक प्रति प्राप्त हो जाए तो मेरी
ख़ुशक़िस्मती होगी।"
"यह तो अच्छी बात है। अभी तारीख़ संपूर्ण तो
नहीं हुई, मगर जितनी लिखी है उसकी
प्रति देकर मुझे ख़ुशी होगी। मगर चूँकि यह तारीख़ शहंशाह के हुक्म पर लिखी जा रही है
इसलिए शहंशाह की आज्ञा के बग़ैर यह संभव नहीं होगा।"
"आदरणीय अबुल फ़ज़ल, मुझे
यक़ीन है कि शहंशाह आपको आज्ञा दे देंगे। मैंने सुना है कि शहंशाह हिंदुस्तान एक विद्वान और रोशन-ख़याल बादशाह हैं। ऐसा शासक होना किसी भी मुल्क की
ख़ुशक़िस्मती होती है।"
अबुल फ़ज़ल यह बात सुनकर ख़ुश हो गया।
"मुझे ख़ुशी है कि आप भी एक रोशन-ख़याल विद्वान हैं। आजकल
शहंशाह इबादतखाने में
दर्शनशास्त्र और धर्मों पर
बहसें सुन रहे हैं, मैं कोशिश करूँगा कि आप भी
ऐसी किसी महफ़िल में शामिल हो सकें।"
"अगर यह हो जाए तो मैं अपने आपको दुनिया का सबसे बड़ा
ख़ुशक़िस्मत इंसान समझूँगा। यह तो कमाल की
इज़्ज़त होगी।"
"अच्छा,
आइए
फिर मैं आपको अपनी तारीख़ की किताब दिखाऊँ।"
इबादतखाना
इबादतखाने की शानदार इमारत अमावस्या की रात के अंधेरे और दीयों की मदहोश रौशनी में तैरती
दिखाई देती थी।
सीढ़ी के एक पायदान पर दरवाज़ा था। सामने
गुंबद के नीचे बादशाह के बैठने का गोल चबूतरा था जिसके इर्द-गिर्द एक-एक क़दम नीचे दो और
चबूतरे थे। निचले चबूतरे पर अनुवादक और शिष्य बैठे थे। ख़ूब रौणक़ लगी
हुई थी। बीच वाला चबूतरा विद्वानों के लिए था।
बादशाह के चबूतरे के दाएँ तरफ़ सबसे पहली जगह
अबुल फ़ज़ल की थी, जो ख़ाली पड़ी थी। उसके साथ
अबुल फ़ज़ल का कवि भाई
फ़ैज़ी बैठा था। फ़ैज़ी के साथ लंबी
सफ़ेद दाढ़ी वाला अग्नि-पूजक विद्वान दस्तूर
मेहरजी राणा अपना लंबा सफ़ेद घाघरा समेटे बैठा था। सिर पर सफ़ेद
गोल टोपी थी। पटका और चादर गेहुँए थे। बादशाह के चबूतरे के
सामने हिन्दू पुरोहित पुरषोत्तम दास बैठा था। सफ़ेद धोती पर सिंदूरी रंग की चादर लिपटी थी और
सिर व मुँह मुँडा था बस पीछे एक चोटी थी। उसके साथ बौद्ध भिक्षु आचार्य सिद्धार्थ बैठे थे। पीले रंग की चादर में लिपटे, सिर, मुँह
और भौंहे भी मुँडी थीं।
बादशाह के बाएँ तरफ़ लंबी सफ़ेद दाढ़ी वाला यहूदी
रब्बी यित्ज़ाक़ काला चोग़ा और छोटी गोल
टोपी पहने बैठा था। उसके आगे काला चोग़ा और ऊँची टोपी पहने फ़ादर रोडॉल्फो बैठा था। साथ सफ़ेद दाढ़ी और पगड़ी पहने मुल्ला अब्दुल क़ादिर बदायूनी बैठा था।
इशा (रात)
का वक़्त हो चला था मगर अभी भी सब बादशाह का इंतज़ार कर रहे थे। अनुवादक निचले
चबूतरे पर मौजूद थे मगर कोई भी किसी से बातचीत नहीं कर रहा था।
इतने में अबुल फ़ज़ल आ गया। उसके अंदर दाख़िल
होने पर सब लोग मुस्तैद तो हो गए मगर उठा कोई
नहीं। बेकन और उसके अनुवादक को निचले चबूतरे पर बिठाकर वह बीच वाले चबूतरे पर अपनी
जगह पर आया और बैठने से पहले दिल पर हाथ रखकर सब को सलाम कहा। "अल्लाह-ओ-अकबर।"
कोई बोला नहीं, बस
सिर हिलाकर जवाब दे दिया। सब समझ गए थे कि अबुल फ़ज़ल आ गया है तो अब शहंशाह भी आने
ही वाला होगा। थोड़ी देर बाद ही बादशाह की आमद का ऐलान हुआ।
सब खड़े हो गए। सबसे ऊपर शाही चबूतरे के पिछले कमरे से बादशाह प्रकट हुआ। बादशाह बैठ गया तो
सारे विद्वान भी बैठ गए। अबुल फ़ज़ल घुटनों के बल उठकर बोलने लगा।
"शहंशाह का इक़बाल
बुलंद हो, आज हम शहंशाह के हुक्म के मुताबिक़ कल की बात
को आगे बढ़ाएँगे..."
बादशाह ने हाथ उठाया। अबुल फ़ज़ल चुप करके
दुबारा नीचे बैठ गया।
"हम बड़े दिनों से बातचीत कर रहे हैं और विभिन्न मामलों पर
मैंने आप सब की बुद्धि और ज्ञान से भरी बातें सुनी हैं।
मगर आज मैं चाहता हूँ सारे विद्वान मुझे एक वाक्य में बताएँ कि उनके दीन के
मुताबिक़ ईश्वर और मनुष्य का रिश्ता क्या है?"
यह कोई नई बात नहीं थी। अक्सर चलती बहस को, कभी ख़ुश होकर और कभी झुँझलाकर, बादशाह यूँ ही ख़त्म करके कोई नई बहस छेड़ देता था।
सब अपनी सोचों को क्रमबद्ध करने लगे। फिर बदायूनी बोला।
"शहंशाह-ए-आलम, इस्लाम
के मुताबिक़ ईश्वर और मनुष्य का रिश्ता शासक और
शासित का है। ईश्वर का काम है आदेश देना और मनुष्य का काम है आदेश का पालन करना।"
अकबर ने बात ग़ौर से सुनी, फिर एक नज़र अबुल फ़ज़ल को देखा जिसके चेहरे पर
बदायूनी को बोलता देखकर एक विषैली मुस्कान फैल गई थी।
कुछ देर बाद यहूदी रब्बी बोला।
"शहंशाह,
यहूदीयत के मुताबिक़ ईश्वर और
मनुष्य का रिश्ता अनुबंध का है। 'यहोवा' ने हमसे अनुबंध किया है कि
अगर हम उसके दीन पर चलें तो वह हमें इज़राइल की हुक़ूमत और अपनी नेमतों से नवाज़ेगा।"
अकबर ने सिर झुकाकर बात पर ग़ौर किया। फिर सिर
उठाकर विद्वानों की तरफ़ देखने लगा।
अब पादरी बोला।
"शहंशाह-ए-हिंदुस्तान, ईसाईयत
में ईश्वर और मनुष्य का रिश्ता एक महान प्रेम का है। ईश्वर ने मनुष्य को स्वर्ग में रखा था, मगर मनुष्य ने ग़लती की
और सज़ा पाई। फिर प्रेम भरे ईश्वर ने धरती पर आकर उसके हिस्से की सज़ा
ख़ुद काटकर उसकी ग़लती
माफ़ कर दी। मनुष्य का काम है
कि वह अपने ईश्वर से प्रेम करे।"
अकबर ने फिर अबुल फ़ज़ल की तरफ़ देखा और सिर
हिलाया।
अब पुरोहित पुरषोत्तम बोला।
"हिंदुत्व में ईश्वर और मनुष्य का कोई अंतर नहीं।
हर मनुष्य ईश्वर का ही
रूप है, उसका काम यह है कि वह अपने अंदर के ईश्वर को
पहचाने।"
इस बात पर अकबर ने 'वाह' कहा।
साथ ही अबुल फ़ज़ल मुग्ध होकर बोला। "अल्लाह-ओ-अकबर।"
बदायूनी के चेहरे पर घृणा फैल
गई।
इस बार आचार्य बोला।
"शहंशाह,
बौद्ध धर्म में कोई ईश्वर नहीं।
मनुष्य जो कर्म करता है उसे उसका फल मिलता
है। अगर कोई इस बात को
आत्मसात नहीं कर सकता तो यह समझ ले
कि यह सिद्धांत ही ईश्वर है।"
अकबर देर तक आचार्य को देखता रहा। फिर उसने
दस्तूर की तरफ़ नज़र की।
दस्तूर बोला।
"ईश्वर और मनुष्य का रिश्ता साथियों का
है। अच्छे-बुरे का फ़ैसला मनुष्य ख़ुद कर सकता है। मनुष्य की मर्ज़ी है चाहे वह ईश्वर 'अहूरा मज़्दा' का साथ दे या बुरे कर्मों
से शैतान 'अहरिमन' का साथी बन जाए।"
अकबर ने एक लंबी साँस ली।
यह बातें जो विद्वानों के बाद उनके अनुवादक
फ़ारसी और अन्य ज़बानों में महफ़िल को बता रहे थे और फ़ारसी सुनकर बेकन का अनुवादक
उसके कान में अंग्रेज़ी कर रहा था,
सुनकर
बेकन के दिमाग़ में विचारों का बवंडर चलने लगा। इतने गहरे दर्शन उसने न कभी सुने थे न पढ़े
थे। ईश्वर और मनुष्य का रिश्ता शासक-शासित का, प्रेम
का, अनुबंध का, साथी का, एक
ही वस्तु के विभिन्न
स्वरूपों का और एक क़ानून का। ये लोग हैं या ज्ञान
के गहरे सागर? बेकन का दिमाग़ ये बातें आत्मसात करने की
कोशिश कर रहा था। इस हर रिश्ते के आधार पर तो ईश्वर का चरित्र भी विभिन्न बनता है।
हिंदुस्तान में ईश्वर के
अस्तित्व और उसके स्वरूप पर लोग कितना गहरा, कितना स्वतंत्र और कितना भिन्न सोचते हैं। और वहाँ यूरोप
में हम चुड़ैलें ढूँढने और उन्हें मारने के
क़ानून पास कर रहे हैं। यह मुल्क तो ज्ञान में हमसे सदियों आगे है। यहाँ तो मुझे ज्ञान सीखने के असंख्य अवसर मिलेंगे, बेकन ने सोचा और योजना बनाने लगा कि अबुल फ़ज़ल
से कहेगा उसकी मुलाक़ातें इन विद्वानों से भी करवाए।
यह सारी बातें हो गईं तो अबुल फ़ज़ल मुस्तैद होकर बैठ गया कि अब बादशाह
के दिमाग़ में जो भी बात है उसे छेड़ने के लिए, बादशाह
उसके साथ ही बहस शुरू करेगा। मगर अकबर कुछ न बोला। कुछ देर इसी तरह गुज़र गई तो
अबुल फ़ज़ल को बेचैनी होने लगी।
आख़िर अकबर बोला।
"मैंने सब की बातें ग़ौर से सुनी हैं। बड़ी ही उत्तम बातें हैं, मगर हैरानी की बात यह है कि अगर ईश्वर एक है
तो फिर उसका रिश्ता हर दीन के साथ अलग-अलग क्यों है? मैं चाहता हूँ कि इन बातों पर कुछ देर एकांत में ग़ौर करूँ। अब फिर हम
कल शाम को मिलेंगे।"
यह कहकर बादशाह उठ गया।
साथ ही सारे उठ गए। बादशाह ने अबुल फ़ज़ल को
पीछे आने का इशारा किया और पिछले दरवाज़े से निकल गया। अबुल फ़ज़ल जल्दी से उसके पीछे
गया।
"शहंशाह को आज की महफ़िल अच्छी लगी है।" अबुल फ़ज़ल ने
अकबर के मन में झाँकने की ख़ातिर बात छेड़ी।
अकबर मुस्कुराया।
"हाँ अबुल फ़ज़ल, ये
बातें, हमेशा की तरह, कमाल की थीं।"
"फिर भी आज शहंशाह को बातें बहुत ही ख़ास लगी हैं कि आप इन पर
एकांत में ग़ौर करना चाहते हैं?"
अबुल
फ़ज़ल ने हैरानी से पूछा।
अकबर ने इशारा किया तो उसे घेरा डाले पच्चीस दरबान दस क़दम दूर हो गए।
"अबुल फ़ज़ल,
आज
की रात मैं रानी मारिया के साथ गुज़ारना चाहता हूँ। तुम इन्हें संभाल लो, कल कोई और बात करेंगे।"
अबुल फ़ज़ल दो क्षण चुप
रहा।
"तो क्या शहंशाह को यह बातें सतही लगी
हैं?"
अकबर मुस्कुराया।
"नहीं अबुल फ़ज़ल, यह
कमाल की बातें थीं। मैं इन विद्वानों की बातों पर हमेशा ही ग़ौर करता हूँ। मगर मैं
मुसलमान पैदा हुआ था और मुसलमान ही मरूँगा।"
"तो शहंशाह-ए-आलम, फिर
इन महफ़िलों का क्या
उद्देश्य?"
"अबुल फ़ज़ल,
तुम बुद्धिमान हो। मैं बादशाह हूँ, कोई मुल्ला या पंडित नहीं। मुझे अपनी जनता पर हुक़ूमत करनी है, उन्हें स्वर्ग नहीं दिलवाना। लेकिन यह बात
लोग नहीं समझते। अगर मैं मुसलमान ही रहूँ तो सबका बादशाह
नहीं बन सकता। असल में अगर मैं किसी भी एक मज़हब का अनुयायी रहूँ
तो मैं सारी जनता का बादशाह नहीं बन सकता।"
"तो क्या शहंशाह नास्तिक होने का ऐलान करने का इरादा रखते हैं?" अबुल फ़ज़ल ने परेशानी से
पूछा।
"नहीं अबुल फ़ज़ल, इसका
भी उल्टा नुक़सान ही होगा।"
अबुल फ़ज़ल कुछ न समझकर चुप रहा।
अकबर ने आसमान के तारों को
देखते हुए कहा।
"इसलिए मैं सबको उलझन में ही रखूँगा। हर कोई यही
सोचता रहे कि मैं उसके मज़हब की तरफ़ या तो झुका हुआ हूँ या फिर झुक सकता हूँ। अतः सारे मुझे क़ायल करने की आस में ही लगे रहेंगे।"
अबुल फ़ज़ल अनायास आगे
बढ़ा और उसने झुककर अकबर का हाथ चूम लिया।
"शहंशाह-ए-आलम की समझ-बूझ सारे आलम की किताबों और
ज्ञान से बढ़कर है।"
"बस करो अबुल फ़ज़ल, अब
मुझे जाने दो। मेरा दिल रानी की आगोश के लिए तड़प रहा है।" अकबर ने शरारत से कहा और महल
की तरफ़ चल दिया।
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