Monday, 15 September 2025

अज़ दिल्लई ता पालम (कहानी)

 अज़ दिल्लई ता पालम

लेखक

टीपू सलमान मख़दूम

 पञ्जाबी से तर्जुमा




1803ء

1803ء का साल दुनिया की तारीख़ में एक अजीब साल था। यूरोप में नेपोलियन अँग्रेज़ों के साथ जंगें लड़ रहा था और दुनिया के दूसरे कोने में अमरीका की सुप्रीम कोर्ट ने "मारबरी बनाम मेडिसन" के मुक़द्दमे में फ़ैसला दिया कि अगर हुकूमत आईन के ख़िलाफ़ कोई क़ानून बनाए तो अदालतें इस क़ानून को रद्द कर सकती हैं। 

यही वो साल था जिस में दिल्ली का लाल क़िला उदास दिखाई देता था। कमज़ोर, लाचार और बूढ़ा। इस की अज़ीम-उश-शान दीवारें और आली शान मीनार भादों की चमकीली धूप में भी फीके पड़े थे। मराठों ने अँग्रेज़ों से जंग हार कर शहंशाह-ए-हिंदुस्तान को कंपनी बहादुर की पनाह में दे दिया था और अब शहंशाह-ए-हिंदुस्तान का वज़ीफ़ा कंपनी बहादुर ने देना था। ये ख़बर मिलने पर शाह आलम ने ज़म्रुद से कहा था कि वो सलजूक़ वज़ीर-ए-आज़म निज़ाम-उल-मुल्क तूसी की अज़ीम किताब "सियासत-नामा" में से बादशाह को वो वाक़िआ सुनाए जिस में जंग-ए-बलख़ हार कर उमर बिन लैस ने सिर्फ़ इतना कहा था कि "सुबह में अमीर था, और शाम को असीर"। 

पचहत्तर साल के शाह आलम सानी ने बटेरे की बोटी के साथ उंगलियां भी चाट लीं। चौबीस साल की गुल बदन की उंगलियां छः घंटे दम पर रखी बटेरे की बोटियों से ज़्यादा मुलायम थीं। एक हाथ से इस की रेशमी कलाई पकड़ कर गुल बदन की उंगलियां चूमते मुग़ल बादशाह का दूसरा हाथ कनीज़ की नंगी कमर पर था। शर्म और शरारत से जब वो लचकती तो शहंशाह-ए-हिंदुस्तान के पेट में गुदगुदी सी होती। 

शाह आलम सानी। क्या शानदार लक़ब था। रोब व दाब वाला, शान व शौकत वाला। अँग्रेज़ इस के लंबे चौड़े ख़िताबात सुन कर हँसते थे, और हासिद कहते थे, "सल्तनत-ए-शाह आलम, अज़ दिल्ली ता पामल"। पामल दिल्ली के बिल्कुल क़रीब ही था। 

बड़े बड़े लफ़्ज़ों के नीचे दबती मुग़लिया सल्तनत के ज़वाल की तीन सीढ़ियों में से शाह आलम सानी दरमियानी सीढ़ी था। 

औरंगज़ेब आलमगीर अपनी मौत के दिन तक मैदान-ए-जंग में ही रहा। उस ने मराठों को बिल्कुल पहाड़ी चूहे बना दिया था। मुग़ल फ़ौज जहां भी पड़ाव डालती, एक शहर आबाद हो जाता। लाखों की फ़ौज जो सालों से मुसलसल जंगें लड़ रही थी, इस की हर ज़रूरत लश्कर में ही पूरी होती थी। पड़ाव डलता तो कई क़िस्म की मंडियां सज जातीं। सब्ज़ी मंडी, गोश्त मंडी, और हीरा मंडी भी। शाम को हज़ारों देगें चढ़ जातीं, किसी टीले पर चढ़ कर देखो तो हद-ए-निगाह तक ख़ेमे ही ख़ेमे नज़र आते। कूच होता तो कई कई मील तक फ़ौज के हाथी, घोड़े, ख़च्चर और सिपाही चलते दिखाई देते। दरमियान में शाही हाथी पर मुग़ल शहंशाह हिंदुस्तान। सफ़ेद बाल, हाथ में तस्बीह, गोद में क़ुरआन, अपनी फ़ौज के साथ जंग में। वो जहां जाता सल्तनत की शान नज़र आती। 

औरंगज़ेब आलमगीर का बेटा मुग़लिया सल्तनत के ज़वाल की पहली सीढ़ी था। 1707ء में शहंशाह-ए-हिंदुस्तान बना और इस के दो लक़ब थे, शाह आलम और बहादुर शाह। दोनों मनहूस साबित हुए। शाह आलम सानी ने अँग्रेज़ से वज़ीफ़ा ले लिया और इस के पोते बहादुर शाह सानी उर्फ़ बहादुर शाह ज़फ़र ने तो मुग़लिया सल्तनत का बेड़ा ही ग़र्क कर दिया। ये अगली दो सीढ़ियां थीं। 

बटेरे के साथ हिरन के कबाब, बतख़ का सालन, दुंबा पुलाव, बादाम अख़रोट का हलवा और अनार का शरबत खिला पिला कर गुल बदन ने बादशाह की उंगलियों की पोरों को जवाहरात जड़े सोने के पियाले में भरे अर्क़-ए-गुलाब में डुबोया और अपने मलमली पल्लू का कोना अर्क़ में डुबो कर बादशाह के होंट पोंछे। 

पास बैठी ख़्वाजासरा ज़म्रुद की आँख के इशारे पर हाथ बांधे तीन हब्शी ग़ुलाम बर्तन उठा कर शाही बावरची ख़ाने की तरफ़ ले गए और ज़म्रुद के इशारे पर एक कनीज़ ने सोने का जड़ाऊ पान-दान बादशाह के आगे रख दिया। ज़म्रुद ने उंगली का इशारा किया और एक हब्शी ग़ुलाम ने ताज़ा हुक़्क़ा बादशाह के पास रख दिया। मख़मली परदे के पीछे से एक और हुसैन कनीज़ ने झांका, ज़म्रुद की किसी भी हरकत के बग़ैर ही वो हुक्म समझ गई और झांझरें छनकाती हुई अंदर आ गई। आदाब किया, "कनीज़ शीरीं-लब आदाब अर्ज़ करती है बादशाह सलामत"। 

गुल बदन ने नरमी से बादशाह का हाथ अपनी कमर से निकाल कर इस की रान पर रखा, गाओ तकिए सीधे किए और बादशाह की कोहनी एक तकिए पर टिका दी। बादशाह खसक कर तकियों से टेक लगा कर बैठ गया। मोरछल से हवा देतीं दोनों कनीज़ें अतराफ़ से हट कर बादशाह के पीछे जा खड़ी हो गईं। गुल बदन ने हुक़्क़े के तीन चार कश ले कर उसे गर्म किया और तसल्ली की कि तंबाकू ठीक है। फिर वो बादशाह के साथ चिमट कर बैठ गई और अपने हाथ से बादशाह को कश देने लगी। हर कश देने से पहले वो ख़ुद कश खींचती और साथ ही गड़गड़ाते हुक़्क़े का कश बादशाह को देती। इतने में शीरीं-लब बादशाह के सामने बैठ गई थी और हकीम साहब की हिदायात के मुताबिक़ काबुली चने जितनी अफ़ीम की गोली मरोड़ कर ख़ुशबूदार पान बना रही थी। 

पान बना कर वो बादशाह की गोद में आ गई। गुल बदन बादशाह के कान में पान की कहानी सुना रही थी। बादशाह ने मुंह खोला और शीरीं-लब ने पान बादशाह के मुंह में रख दिया। पान रखवाते वक़्त बादशाह ने शीरीं-लब की ज़ुबान और होंट चूमे। दोनों कनीज़ें खिलखिला कर हँसीं और बादशाह के चेहरे पर भी मुस्कुराहट फैल गई।


1739ء

1639ء में, उस्ताद अहमद लाहौरी, जो शाहजहां का "नादिर-उल-असर" कहलाता था, एक तरफ़ मल्लिका मुमताज़ महल की क़ब्र पर ताज महल बना रहा था और दूसरी तरफ़ लाल क़िले की बुनियादें रख रहा था। पता नहीं इसी वक़्त ही नहूसत की कोई ईंट इस की बुनियादों में शामिल कर दी गई थी। शाहजहां ने अपनी ख़ाहिश का बीज मे'मार के तसव्वुर में डाला, जहां हुक्म-ए-हाकिम से लाल क़िले का नुत्फ़ा ठहरा। कहां कहां से कारीगर नहीं आए, और कहां कहां से इस की ता'मीर और सजावट के लिए सामान नहीं आया। पूरी एक दहाई मुग़लिया सल्तनत इस की कहानियों से गूंजती रही। किसे ख़बर थी कि ये शानें सिर्फ़ एक ही सदी की हैं। 

1739ء में, ग्यारह साल के शाह आलम सानी की दोनों आँखों ने दो मंज़र देखे। यही दिल्ली और इस का यही लाल क़िला। क़िले के अंदर मुग़ल बादशाह मुहम्मद शाह रंगीला अपने पैरों में घुंघरू बांध कर कनीज़ों के साथ नाचता था और बाहर नादिर शाह दुर्रानी की ईरानी फ़ौजें दिल्ली की गलियों में क़त्ल-ए-आम कर रही थीं। फिर इन्हीं आँखों ने तख़्त-ए-ताऊस और कोह-ए-नूर हीरा भी नादिर शाह के ईरानी टट्टुओं पर लदा हुआ क़िला छोड़ते देखा।


1803ء

बादशाह की दोनों लाडली कनीज़ें अटखेलियां करती रहीं। कभी इस की रानें दबाने के बहाने हाथ फेरतें और कभी बाल ठीक करने के बहाने इस का मुंह अपनी चोली में छुपा लेतीं। इर्द-गिर्द बादशाह के ख़ास ख़्वाजासरा, कनीज़ें और गवय्ये भी अब आ बैठे थे, हँसी मज़ाक़ चलता रहा। बीच में कोई लतीफ़ा सुनाता, कोई ग़ज़ल और कभी गवय्ये राग सुनाते। रक़्स के लिए कोई नहीं उठा। 

दरबान ने बादशाह के कमरे के बाहर खड़े हथियार बंद ख़्वाजासरा के कान में इत्तेला' दी। इस ने दरवाज़े के अंदर वाले को बताया। अंदर वाले ने बराबर वाले को। बराबर वाले ख़्वाजासरा ने एक महफ़िल वाले को और महफ़िल वाले ने बादशाह के पास बैठी ज़म्रुद के कान में ख़बर डाली। ज़म्रुद ने सर इतना सा हिलाया जितना पलक झपकने में होता है। महफ़िल वाला अपनी जगह पर जा बैठा और महफ़िल इसी तरह ही चलती रही। 

दो घंटे और गुज़र गए तो महफ़िल धीमी पड़ने लगी। अब ज़म्रुद खड़ी हो गई, और साथ ही गुल बदन और शीरीं-लब छुईमुई की तरह सिकुड़ गईं। ख़्वाजासरा बादशाह के साथ चिमट कर बैठ गई और बोली, "आदाब शहंशाह-ए-आलम, ये बंदी ज़म्रुद आदाब अर्ज़ करती है।" 

बादशाह ने हल्का सा इस की तरफ़ मुंह किया, ये जवाब भी था और सवाल भी। 

ज़म्रुद ने मुंह बादशाह के कान के साथ लगा दिया। 

ज़म्रुद जिस तरह पानी पर चलती हुई बादशाह के पास आई थी। फिर नज़ाकत से अपना नर्म हाथ बादशाह की छाती पर रख कर कान में बात बताई, और जब तक बादशाह ने कुछ नहीं कहा, बुत बनी रही। साथ बैठी दोनों कनीज़ें ज़म्रुद की एक एक हरकत को आँखों से चूमती रहीं। उम्र में छोटी होने के बाइस वो एक दूसरे से कहती रहती थीं कि वो ज़म्रुद से अच्छी बांदियां हैं। पर अंदर से उन्हें भी पता था कि वो ज़म्रुद का मुक़ाबला नहीं थीं। ख़ूबसूरत तो ज़म्रुद उन से ज़्यादा थी ही, पर इस की अदाएं और भी आफ़त थीं। यूं ही तो बादशाह इस पर फ़िदा नहीं था। 

ज़म्रुद का हाथ बादशाह की छाती से आहिस्ता आहिस्ता खिसकता हुआ पेट के नीचे की तरफ़ आने लगा और बादशाह का हाथ इस की कमर पर। शाह आलम बैठे बैठे पिघलने लगा। फिर ज़म्रुद ने आहिस्तगी से हाथ खींच लिया। बादशाह ने इस की तरफ़ मुंह किया, और इशारा समझ कर ज़म्रुद खड़ी हो गई। ए'लान किया, 

"वाली सरधना व सिपहसालार-ए-जरी अफ़वाज-ए-सरधना, मुंह बोली दुख़्तर-ए-शहंशाह ज़ेब-उन-निसा बेगम समरु क़दम-बोसी की इजाज़त चाहती हैं।" 

"इजाज़त है", शाह आलम ने कहा। 

सब ने सुन लिया पर कोई कुछ न बोला, जब तक ज़म्रुद की आँख ने इशारा नहीं दिया। साथ ही नवाब-ए-सरधना, ज़ेब-उन-निसा, बेगम समरु की आवाज़ें पड़ने लगीं। पहले महफ़िल वाले, फिर अंदर वाले और फिर बाहर वाले ख़्वाजासराओं और आगे दरबानों तक। 

बेगम समरु के बाल खुले और सीना फटने को न होता तो लगता कोई मर्द जरनैल आ रहा है। 

अमन के माहौल में ये पहली बार था कि वो फ़ौजी लिबास में आई थी। बादशाह के पास पहुंच कर समरु ने तीन बार आदाब किया और आगे बढ़ कर शाही क़दमों में बैठ कर शाह के घुटनों पर हाथ रख दिए। बादशाह ने "ज़ेब-उन-निसा" कह कर उसे ज़ोर से सीने से लगा लिया।


1757ء

ये भी कमाल ही था कि शाह आलम के वालिद का लक़ब आलमगीर सानी था। कहां आलमगीर अव्वल, औरंगज़ेब आलमगीर जिस की इजाज़त के बग़ैर सारे हिंदुस्तान में परिंदा भी पर नहीं मार सकता था और कहां आलमगीर सानी। अपने वज़ीर इमाद-उल-मुल्क की कठपुतली जिस के हाथों ये बादशाह क़त्ल भी हुआ। 

1757ء वो ज़माना था जब अमरीका में अँग्रेज़ सरकार से आज़ादी की बातें होने लगी थीं। फ़्रांस में इनक़िलाब का शो'ला बनने लगा था। बंगाल में नवाब सिराज-उद-दौला को मार कर मीर जाफ़र नवाब बन गया था और वहां कंपनी बहादुर दोनों हाथों से खा रही थी। और इसी साल अहमद शाह अब्दाली दिल्ली में घुस आया। 

इस से पहले भी कई बार हिंदुस्तान आया था, लूट मार करता, चला जाता। जो कि इन अफ़ग़ानियों का काम था। रास्ते में पंजाब आता था, सो जब भी आता, पहले पंजाब को लूटता। पंजाब का गवर्नर और इस की मुग़ल फ़ौज अपनी सियासतों में लगी रहती, कभी लड़े बग़ैर ही हथियार डाल देते, कभी बेदिली से लड़ कर भाग जाते। जो भी होता, पंजाब लूटा जाता। पंजाबियों ने तो ये मक़ूला ही बना लिया था कि, "खादा पीता लाहे दा, बाक़ी अहमद शाह दा" (जो खाया पिया वो नफ़ा का, बाक़ी अहमद शाह का)। 

पंजाब को दो बार लूट कर तीसरी बार लूटने में मज़ा न आया। पंजाबियों के पास कुछ बचा ही नहीं था, लुटाते क्या? सो अब अब्दाली दिल्ली में घुस आया। वैसे पहली बार नहीं आया था। 1739ء में भी, नादिर शाह ईरानी के फ़ौजी के तौर पर दिल्ली लूट चुका था। अब अठारह साल बाद फिर आ गया था, एक बार फिर दिल्ली को लूटने। 

इस बार भी मुग़ल शहंशाह में लड़ने की ताक़त कोई नहीं थी। वो अपने क़ातिल वज़ीर इमाद-उल-मुल्क के साथ लुटेरे को ख़ुश-आमदीद कहने लाल क़िले के दरवाज़े पर आ खड़ा हुआ। 

क्या मंज़र था। रंगीले शहंशाह ने नादिर शाह ईरानी को लाल क़िले में ख़ुश-आमदीद कह कर दिल्ली लुटवाई थी और अब शाह आलम का वालिद अहमद शाह अफ़ग़ानी को ख़ुश-आमदीद कह रहा था कि आओ और फिर दिल्ली को लूट लो। शाह आलम का वालिद आलमगीर सानी अफ़ग़ान फ़ौज के साथ लड़ने की हिम्मत ही नहीं कर सका। शहंशाह औरंगज़ेब, आलमगीर अव्वल की तो रूह भी क़ब्र में तड़प गई होगी। कहां आलमगीर अव्वल अफ़ग़ानिस्तान का हुक्मरां था और किसी अफ़गानी की जुर्रत नहीं थी कि फड़क भी सके। और कहां अब आलमगीर सानी अफ़ग़ानों से जूते खाने बाहर खड़ा था। 

अब्दाली को दिल्ली में क़त्ल-ए-आम करने की ज़रूरत ही न पड़ी। कोई जुम्बिश ही न की। अमन से लूटी गई सारी दिल्ली। पर अमीरों, वज़ीरों और शाही ख़ानदान की शामत आ गई। अफ़ग़ान अफ़सरों ने अमीरों और वज़ीरों के घर बांट लिए। पहले घरों को लूटा। फिर मर्दों को ख़ौफ़-ज़दा कर के छुपाई हुई चीज़ें लूटीं। फिर घर की बेटियों, बहुओं के ज़ेवरात लूटे। फिर बंदों की टांगें बाज़ू तोड़े और ख़ूबसूरत औरतें, ख़्वाह बहुएं, बेटियां थीं या बांदियां, मुसलमान थीं या हिंदू, उठा कर ले गए। 

अब्दाली ने पहले नादिर शाह की तरह ख़ज़ाना लूटा, फिर एक एक कर के शहज़ादों को निचोड़ा। जिन के पास कुछ था उन से दिलवा कर जान छुड़वाई, जिन का पहले ही लुटेरे सब कुछ ढूंड कर लूट चुके थे, वो मार खाते खाते मारे गए। ख़ज़ाने के साथ सारी ख़ूबसूरत शहज़ादियां, कनीज़ें और हिजड़े भी लूट कर अब्दाली अफ़ग़ानिस्तान चला गया। जाने से पहले अपना अफ़सर, नजीब-उद-दौला, आलमगीर सानी का वज़ीर लगा गया। किस की मजाल थी कि इनक़ार करता। पूरा साल लाल क़िले में नजीब रोहेला का ही हुक्म चलता रहा। 

1757ء में, उधर अँग्रेज़ की कंपनी बहादुर प्लासी की जंग में नवाब सिराज-उद-दौला को हरा कर बंगाल पर क़ब्ज़ा कर रही थी और यहां अहमद शाह अफ़ग़ानी आलमगीर सानी की दिल्ली की बुनियादें हिला रहा था। उधर अँग्रेज़ ने बंगाल में मीर जाफ़र को नवाब लगाया और दिल्ली में अब्दाली ने नजीब रोहेला को वज़ीर। दोनों ही अपने लगाने वालों के पट्ठू थे। 

नजीब के हाथ जो बादशाही लगी थी वो आलमगीर से ज़्यादा इमाद-उल-मुल्क की थी। साज़िश घड़ने में इमाद अव्वल था और इस का कोई सानी नहीं था। नजीब के वज़ीर लगने के दूसरे दिन ही इमाद ने इस के ख़िलाफ़ साज़िशें शुरू कर दीं। एक साल लगा कर उस ने मराठों के साथ मेल जोल बढ़ाया और मराठा फ़ौज की मदद से नजीब को दिल्ली से भगा दिया। एक बार फिर लाल क़िले में इमाद का ही डंका बजने लगा। 

पर इस एक साल में नजीब ने पूरा लाल क़िला इमाद के ख़िलाफ़ कर दिया था। इस का हर बंदा या तो मार दिया था या भगा दिया था। इमाद वापिस तो आ गया था, पर इस बार वो अकेला था। ऊपर इमाद अकेला रह गया था और नीचे नजीब के बंदे अकेले रह गए थे। ऐसे हालात बन गए थे कि आलमगीर सानी की चलने लगी थी। पूरा साल और इमाद लगा रहा पर पहले वाली बात न बनी। अब आलमगीर सानी भी दिलेर हो कर बादशाह की तरह बर्ताव करने लगा था। तंग आ कर इमाद ने 1759ء में बादशाह को ही क़त्ल कर दिया। 

बाप के बाद शाह आलम सानी की बारी थी बादशाहत की। पर इमाद और मराठे दोनों ही शाह आलम से डरते थे। उन्होंने शाह जहां सोम की बादशाहत का ए'लान कर दिया। शाह आलम जान बचा कर अवध  भाग गया, नवाब शुजा-उद-दौला के पास। कुछ अर्से बाद शाह आलम ने दिल्ली पर क़ब्ज़ा करने के लिए मदद के वास्ते मराठों से बातचीत शुरू की। मराठे इमाद से ख़ुश नहीं थे। उस ने अब्दाली का लगाया नजीब रोहेला निकलवाने के लिए मराठों के साथ साज़-बाज़ तो कर ली थी, पर वो बड़ा शातिर था, वो कोई सिरा नहीं देता था। मराठों को दिल्ली भी चाहिए थी और दिल्ली में अपनी मर्ज़ी का मुग़ल बादशाह भी। मुग़ल बादशाह के हुक्म के आगे अवाम और छोटी छोटी रियासतों के नवाब, राजे भी चूं नहीं करते थे। शाह आलम के नाम पर मराठों ने फिर दिल्ली पर हमला कर के इमाद और शाह जहां सोम को भगा कर शाह आलम सानी की बादशाहत का ए'लान कर दिया। 

शाह आलम बादशाह तो बन गया, पर वो इतना होशियार था कि दिल्ली वापिस न मुड़ा। वो दिल्ली दरबार की साज़िशों से अच्छी तरह वाक़िफ़ था और अपने वालिद का बतौर शहंशाह-ए-हिंदुस्तान अपने ही वज़ीर के हाथों क़त्ल भी देख चुका था। और इस क़त्ल के पीछे हौसला-अफ़ज़ाई भी उन्हीं मराठों की ही थी जो अब इस को बादशाह बनाए बैठे थे। 

दूसरी तरफ़ 1760ء में ही कंपनी बहादुर ने नवाब मीर जाफ़र को हटा कर इस के दामाद मीर क़ासिम को बंगाल, बिहार और उड़ीसा का नवाब लगा दिया था। मीर क़ासिम कोशिशें कर रहा था कि कंपनी बहादुर को उन की औक़ात में रख कर अस्ल हुक्मरानी अपने पास रखे, न कि ससुर की तरह अँग्रेज़ों का पट्ठू ही बना रहे। इस बात पर अँग्रेज़ों और मीर क़ासिम में ठन गई थी और अवध  का नवाब शुजा चाहता था कि वो मीर क़ासिम के साथ मिल कर अँग्रेज़ों को कुचल दे, क्योंकि उसे डर था कि बंगाल में ज़्यादा मज़बूत हो कर ये अवध  पर चढ़ाई करेंगे। पर अँग्रेज़ों के ख़िलाफ़ जंग में नवाब को मुग़ल बादशाह की ज़रूरत थी। शुजा जानता था कि मुग़ल बादशाह का हाथ इस पर और मीर क़ासिम पर हुआ तो अँग्रेज़ों को हराना आसान हो जाना है। लोग भी मुग़ल बादशाह के ख़िलाफ़ अँग्रेज़ों का साथ नहीं देंगे और और किसी नवाब राजे ने भी मुग़ल बादशाह के ख़िलाफ़ फ़ौज नहीं निकालनी इस लिए नवाब शुजा भी बादशाह को अपने पास ही रहने की सलाह देता। 

तीसरी बात ये भी ख़बरें थीं कि अब्दाली फिर दिल्ली पर क़ब्ज़ा करने आ रहा है और इस बार इस का मुक़ाबला सीधा मराठों से होना था क्योंकि दिल्ली के हुक्मरां अब मराठे थे। शुजा को अँग्रेज़ों के बाद मराठों से ख़तरा था। अफ़ग़ान तो पंजाब या ज़्यादा से ज़्यादा दिल्ली लूट कर चले जाते, पर अगर मराठे ज़्यादा मज़बूत हो गए तो उन्होंने कभी न कभी अवध  पर क़ब्ज़ा करने की कोशिश करनी थी। इस लिए वो अब्दाली के साथ मिल कर मराठों से जंग करने के लिए भी तैयार बैठा था। 

शाह आलम परेशान था कि इन हालात में क्या करे, किस का साथ दे और किस के साथ जंग करे? 

शाह आलम अवध  में रह कर नवाब के वज़ीर मिर्ज़ा नजफ़ ख़ान को पसंद करने लगा था। होशियार और नेक-नीयत आदमी था। 

शाह आलम ने नजफ़ को बुलाया। 

आदाब कर के मिर्ज़ा नजफ़ हाथ बांध कर खड़ा हो गया। 

"मिर्ज़ा तुम नवाब-ए-अवध  के ख़ास वज़ीर हो।" 

नजफ़ बचपन से दरबार में रहा था, बादशाह का मतलब समझ गया। 

"ये बंदा शहंशाह-ए-हिंदुस्तान का ग़ुलाम है और इस के हुक्म की वजह से ही नवाब का नौकर है।" 

मिर्ज़े का सर नीचा ही रहा। 

"मिर्ज़ा। मैं ने सुना है अब्दाली फिर दिल्ली पर चढ़ाई की तैयारियों में है।" 

"शहंशाह ने ठीक सुना है। और नवाब साहब इस के झंडे तले लड़ेंगे।" 

मिर्ज़ा बोला और एक लम्हे के लिए रुक कर उस ने सर उठाया और बादशाह से आँखें मिलाईं। 

"मराठों के ख़िलाफ़।" 

"नवाब को ये मशवरा तुम ने दिया है?" 

"नहीं शहंशाह, ये फ़ैसला मराठों की अवध  पर लगी गंदी नज़रों का नतीजा है।" 

"क्या तुम्हें भी यही ठीक लगता है मिर्ज़ा?" 

नजफ़ कुछ देर चुप रहा। 

"अगर जंग में शहंशाह-ए-हिंदुस्तान अफ़ग़ानों के साथ दिखे तो मराठों के साथ दुश्मनी पड़ जानी। अगर मराठों के साथ दिखे तो अफ़ग़ानों के साथ दुश्मनी।" 

नजफ़ ये कह कर रुक गया। 

"और मिर्ज़ा अगर शहंशाह जंग में किसी के साथ भी न दिखा तो?" 

"तो शहंशाह, अफ़ग़ान जीतें या हारें अब्दाली ने तो मुड़ कर क़ंधार ही जाना है।" 

शाह आलम काफ़ी देर तक नजफ़ की बातें तोलता रहा। फिर इस को अपनी याक़ूत जड़ी अंगूठी इनआम में देते हुए बोला, 

"मिर्ज़ा, मैं तुम्हें शुजा से मांग लूंगा।" 

"इस से ज़्यादा मेरी और क्या ख़ुशक़िस्मती हो गी शहंशाह।" 

नजफ़ ने अदब से अंगूठी पकड़ कर बादशाह का हाथ चूमते हुए कहा। सो शाह आलम सुकून से अवध  ही बैठा रहा, न दिल्ली में दाख़िल हुआ न पानीपत। 

फिर हुआ भी वही। 1761ء में पानीपत की तीसरी लड़ाई में अहमद शाह अब्दाली के साथ नजीब रोहेला और अवध  का नवाब शुजा-उद-दौला लड़े और मराठों को कुचल दिया। अब्दाली फिर दिल्ली में घुस आया। बादशाह बदलने की ज़रूरत कोई नहीं थी, वो पहले ही बाहर बैठा था और था भी इस के साथी नवाब शुजा की पनाह में। अब्दाली ने एक बार फिर दिल्ली नजीब रोहेला के हवाले की और लूट मार कर के ख़ुद अफ़ग़ानिस्तान वापिस चला गया। 

मराठों की कमर तोड़ कर अब शुजा ने अँग्रेज़ों की तरफ़ मुंह किया और बंगाल के नवाब मीर क़ासिम को हौसला-अफ़ज़ाई देने लगा। क़ासिम पहले ही अँग्रेज़ों से ख़ुश नहीं था। हालात बिगड़ते बिगड़ते जंग तक पहुंच गए। 1764ء में बक्सर के मैदान में फ़ौजें आमने सामने आ गईं। एक तरफ़ बंगाल, बिहार और उड़ीसा के नवाब मीर क़ासिम और अवध  के नवाब शुजा-उद-दौला की फ़ौजें मुग़ल शहंशाह शाह आलम सानी के झंडे तले और सामने कंपनी बहादुर की फ़ौज। 

अब फिर शाह आलम की दिल्ली मुश्किल में पड़ गई थी। पानीपत के बाद मराठों की कमर टूट चुकी थी, इस वक़्त तो वो शाह आलम को दिल्ली नहीं दिलवा सकते थे। अगर तो नवाब बक्सर में जीत जाते तो वो उन की फ़ौजें ले कर दिल्ली पर क़ब्ज़ा कर सकता था, पर अगर वो हार जाते तो फिर शाह आलम को अफ़ग़ानों से दिल्ली कौन छुड़ा कर देता? अँग्रेज़ों के साथ अभी तक मुग़ल बादशाह की कोई लड़ाई नहीं थी, पर अब हो जानी थी क्योंकि नवाब शुजा ने इस को ये जंग लड़ने के लिए मजबूर कर लिया था। और जीत कर अँग्रेज़ों ने शाह आलम की मदद क्यों करनी थी? 

बक्सर की लड़ाई तो हुई, पर शाह आलम अपने ख़ेमे से बाहर ही न आया। वो अंदर बैठा अपनी ग़ज़ल पूरी करता रहा। 

जंग अँग्रेज़ जीत गए। मीर क़ासिम भाग गया और शुजा अवध  वापिस चला गया। शाह आलम ने अँग्रेज़ों को पैग़ाम भिजवाया और मुलाक़ातें हुईं। कंपनी शाह आलम को इलाहाबाद ले गई। अब कंपनी बहादुर को भी समझ आ गई थी कि मुग़ल बादशाह हाथी की तरह है, ज़िंदा लाखों का और मरा सवा लाख का। भले बादशाह किसी काम का भी न हो, अगर बंगाल पर क़ब्ज़ा मुग़ल बादशाह के हुक्म से हो तो आगे कोई जुम्बिश नहीं करेगा। 

1765ء में कंपनी बहादुर ने बंगाल, बिहार और उड़ीसा की टैक्स इकट्ठा करने की दीवानी, शाह आलम सानी से लिखवा ली। साथ ही शुजा से भारी जंगी जुर्माना ले कर अवध  में भी अपनी फ़ौजें लगा दीं। 

फिर शाह आलम अँग्रेज़ों से कहता रहा कि उसे फ़ौज दें, उस ने दिल्ली जा कर बैठना है। पर उन का ध्यान मैसूर के हैदर अली और टीपू सुल्तान की तरफ़ हो गया था।


1803ء

बेगम समरु को शाह आलम ने अपने साथ ही बिठा लिया। 

"क्या हाल है मेरी ख़ूबसूरत बेटी का, सब ख़ैरियत है?" शाह आलम ने प्यार से पूछा। 

"जी बादशाह सलामत, रब का बड़ा करम है।" इतने में कनीज़ें शरबत, पान और ताज़ा हुक़्क़ा ले आईं और बादशाह का हाथ छुआ कर ज़म्रुद ने समरु को पान और हुक़्क़ा पेश किया। थोड़ी देर इधर उधर की बातें कर के शाह आलम ने ज़म्रुद की तरफ़ मुंह किया। ज़म्रुद ने ताली मार कर "तख़लिया" कहा और सब आदाब करते उठ गए। ज़म्रुद ने आँख का इशारा किया और गुल बदन और शीरीं-लब भी उठ गईं। अब बादशाह, ज़म्रुद और समरु के साथ सिर्फ़ मोरपंख का पंखा झलने वाली दो कनीज़ें ही रह गई थीं। 

"अँग्रेज़ फ़ौजों ने तो दिल्ली की गलियां गुलाब कर दी हैं।" बेगम समरु ने अँग्रेज़ फ़ौजियों की वर्दी के लाल कोट की तरफ़ इशारा किया। 

"हां ज़ेब-उन-निसा, लाल पगड़ियों के बाद अब दिल्ली में लाल चौग़ों का राज है।" शाह आलम का इशारा मराठों की लाल पगड़ियों की तरफ़ था। 

"ठीक कहा शहंशाह, कम-अज़-कम ये सफ़ेद शलवारों से तो अच्छे ही हैं।" बेगम समरु का इशारा ग़ुलाम क़ादिर रोहेला के अफ़ग़ान फ़ौजियों की तरफ़ था, जिन से 1787ء में जंग कर के समरु ने शाह आलम को बचाया था। ये वही साल था जब दुनिया के दूसरे कोने में अमरीका ने आईन बना कर अपनी आज़ाद आईनी जम्हूरियत की आज़ादी का ए'लान कर दिया था। ये कहते साथ ही समरु को एहसास हुआ कि उस ने ग़लत बात छेड़ दी थी। कुछ देर चुप रह कर शाह आलम ने अपनी ग़ज़ल के दो शे'र पढ़े।

'आजिज़ हूं तेरे हाथ से क्या काम करूँ मैं,

कर चाक गरीबां तुझे बदनाम करूँ मैं।

है दौर-ए-जहां में मुझे सब शिकवा तुझी से,

क्यों कुछ गिला गर्दिश-ए-अय्याम करूँ मैं।'

कोई कुछ न बोला। ज़म्रुद ने इशारा किया और दरवाज़े पर खड़ा ख़्वाजासरा बादशाह के लिए शराब लेने निकल गया। ज़म्रुद ने घुटनों के बल बैठ कर पहले शाह आलम के होंट चूमे, फिर आँखें चूमते इस के आँसू चाट लिए। अपने हाथ से जाम बना कर ज़म्रुद ने पहले समरु को दिया फिर बादशाह का जाम बना कर इस से पहला घूँट पीने की इजाज़त ली। 

दोनों तरफ़ घुटने रख कर बादशाह की छाती पर अपनी छातियां दबाईं और जाम में से घूँट ले कर शाह आलम के मुंह के साथ मुंह जोड़ लिया। घूँट दे कर ज़म्रुद ने ज़ुबान बादशाह के मुंह में भर दी और साथ ही एक हाथ इस की टांगों में डाल दिया। बादशाह दोनों हाथ इस की कमर पर रख कर इस की ज़ुबान चूमने लगा। बादशाह फिर तरो-ताज़ा हो चुका था। 

"ज़ेब-उन-निसा, हम तुम्हारा फ़रंगी नाम हमेशा भूल जाते हैं। क्या नाम रखा था तुम ने मसीहियत अपना कर?" बादशाह ने अख़रोट की गिरी चबाते हुए कहा। 

"छोड़ें बादशाह सलामत", समरु ने मुस्कुरा कर कहा, 

"वो तो लोगों के लिए है, आप के लिए तो मैं आप की ज़ेब-उन-निसा ही हूं।" 

"सही कहा।" बादशाह ने कहा। "तुम मेरी सब से प्यारी बेटी हो।" 

कुछ देर समरु बादशाह से इस की अरबी, फ़ारसी और हिंदवी शायरी के बारे में पूछती रही और उसे हँसाती रही कि अँग्रेज़ी और फ़्रांसीसी शायरी इतनी बेजोड़ और बे-वज़न होती है जैसे बच्चों ने लोरियां लिखी हों। फिर कहने लगी कि इस का फ़्रांसीसी दोस्त बताता था एक इतालवी आ'लिम के बारे में। मेकियावली। जिस ने यूरोप की मशहूर तरीन सियासत पर किताब लिखी थी, जिस का नाम था "शहज़ादा"। इस का क़ौल है कि अगर बादशाह मज़बूत रियासतों में घिरा हो तो उसे किसी न किसी ताक़त का खुल कर साथ देना चाहिए। इस तरह जीत हो या हार, बादशाह के साथ एक ताक़त हमेशा खड़ी रहेगी। किसी का भी साथ न देने का मतलब हो गा कि जो भी जीतेगा, वो समझेगा कि एक तो बादशाह अकेला है, और दूसरा उस ने मेरा साथ नहीं दिया। सो इस सूरत में, जो भी जीतेगा वो उसे कुचल देगा। 

शाह आलम और ज़म्रुद, दोनों ने ये बात बड़े ध्यान से सुनी।


1777ء

तक्षशिला की यूनिवर्सिटी से पढ़ा, महाराजा चंद्रगुप्त मौर्य का वज़ीर-ए-आज़म कौटिल्य चाणक्य, उलूम-ए-सियासियात का माहिर था। इस की किताब "अर्थशास्त्र" यानी राज-नीति, इस ज़माने में लिखी गई थी जब अरस्तू यूनान में फ़लसफ़ा पढ़ाता था और इस का शागिर्द सिकंदर दुनिया फ़तह कर रहा था। चाणक्य ने लिखा था कि सियासत के लिए ज़रूरी है कि अगर दोस्त मदद न करे तो दुश्मन को कोई लालच दे कर साथ मिला लेना चाहिए। 

1770ء में नजीब रोहेला मर गया और इस की जगह इस का बेटा ज़ाबता रोहेला दिल्ली का अस्ल हुक्मरां बन बैठा। ज़ाबता अपने वालिद से भी ज़ालिम था इस लिए दिल्ली में कोई भी इस से ख़ुश नहीं था। 

शाह आलम ने अर्थशास्त्र के दुश्मन को लालच देने वाले सफ़े पर मोर पंख की निशानी लगाई और मराठों को पैग़ाम भिजवाया। 

अहमद शाह अब्दाली बीमार अपनी आख़िरी घड़ियां गिन रहा था। मराठे फिर ताक़त इकट्ठी कर रहे थे और पहले ही दिल्ली पर फिर अपना राज चाहते थे। मामला तय हो गया। शाह आलम कंपनी बहादुर छोड़ कर आ गया और 1772ء में मराठों की फ़ौज के साथ दिल्ली पर क़ब्ज़ा कर लिया। ज़ाबता रोहेला भाग गया पर बाज़ न आया। दिल्ली पर एक बार फिर शाह आलम के नाम पर मराठों का क़ब्ज़ा हो गया। मराठे पानीपत की लड़ाई के बाद ख़ास तौर पर अफ़ग़ानियों के जानी दुश्मन हो गए थे। नजीब रोहेला अब्दाली के साथ ये जंग भी लड़ी थी और अब इस का बेटा भी हारने के बावजूद शरारतें करने से बाज़ नहीं आ रहा था। मराठों और ज़ाबता रोहेला की आँख-मिचौलियां चलती रहीं। 

1777ء में अमरीका की आज़ाद फ़ौजों ने अँग्रेज़ों की हालत ख़राब कर दी और इसी साल की एक लड़ाई में मराठों से हार कर ज़ाबता रोहेला भाग गया और माल-ए-ग़नीमत में मराठों के हाथ इस का बेटा लग गया। नजीब रोहेला का पोता, ग़ुलाम क़ादिर रोहेला। दस साल का रोहेला लड़का बहुत ही ख़ूबसूरत था। शाह आलम ने उसे अपने पास महल में ही रख लिया।


1788ء

1788ء में फ़्रांस का बुरा हाल था। बादशाह की अय्याशियों, ग़लत पॉलिसियों और अमरीकी जंग-ए-आज़ादी में अमरीकियों के साथ मिल कर अँग्रेज़ों के साथ जंगें करने से फ़्रांस दिवालिया हो चुका था। इसी वजह से अगले साल इनक़िलाब-ए-फ़्रांस ने दुनिया की तारीख़ में धूम मचा दी। दुनिया के एक कोने पर अँग्रेज़ों ने ऑस्ट्रेलिया पर क़ब्ज़ा कर लिया और दूसरे कोने पर अमरीका की रियासतों ने अपना आईन मंज़ूर कर लिया। 

और इसी साल दिल्ली के लाल क़िले में भी क़ियामत का समां था। दिल्ली में रोहेला फ़ौजी लूट मार कर रहे थे। मुग़ल तख़्त पर ग़ुलाम क़ादिर रोहेला बैठा शराब पीता था और सारी शहज़ादियां इस के आगे नाच रही थीं। एक तरफ़ शाह आलम, शहज़ादे और अमीर वज़ीर घुटनों के बल अफ़ग़ानी तलवारों के साए तले बैठे थे। 

क़ादिर का मुंह लाल था। शराब पीता जाता और क़हक़हे लगाता जाता।


1783ء

ग़ुलाम क़ादिर रोहेला को बादशाह हर वक़्त अपने साथ ही रखता। दरबार में भी साथ ही, खिलाता भी साथ ही और सुलाता भी साथ। लड़का बादशाह के बहुत ही दिल को भा गया था। इतना कि कनीज़ों ने तो क्या जलना था, ख़्वाजासरा भी जलने लगे थे। 

कुछ हफ़्ते ही गुज़रे थे कि एक दिन शाह आलम अपनी ख़ाब-गाह से बाहर आया और इस का मिज़ाज बरहम था। नमकीन को बुलाया गया। नमकीन बादशाह का ख़ास-उल-ख़ास ख़्वाजासरा था। लड़का नमकीन के हवाले हुआ कि इस की तरबियत की जाए और उसे शहंशाह-ए-हिंदुस्तान की मुहब्बत के लाइक़ बनाया जाए। फिर कुछ महीनों के लिए लड़का लाल क़िले के दूसरे हिस्सों में ग़ायब रहा। नमकीन ने उसे मुहब्बत के आदाब सिखाए। अपने ख़ास-उल-ख़ास ख़िदमतगारों से मुहब्बत की तरबियत दिलवाई। अरबी, फ़ारसी और हिंदवी के उस्ताद रखे गए ताकि इस में शायरी का ज़ौक़ पैदा हो। माहिर गवय्ये उसे सुर और ताल की ता'लीम देने पर मामूर हुए। साथ ही चूड़ीदार पाजामे पर घुंघरू छनकाना और तंग कुर्ते में ठुमके लगाना सिखाए गए। 

छ महीने बाद जब नमकीन ने क़ादिर को बादशाह की ख़िदमत में पेश किया तो इस की कजरारी आँखें, पान की गुलौरी से हुए लाल होंट, तंग कुर्ते, मटकती चाल और लचीला आदाब देख कर ही शाह आलम का जी ख़ुश हो गया। सुबह उठा तो और भी ख़ुश था। नमकीन को बादशाह के गले में पड़ा मोतियों का हार इनआम हुआ। 

साल जवानी की रातों की तरह गुज़रते गए, जल्दी जल्दी। बादशाह का क़ादिर रोहेला के लिए प्यार बढ़ता ही गया। दूसरी तरफ़ दिल्ली बचाना भी एक चौबीस घंटे की उलझन बन गया था। सिख गिरोह हमला करते तो मराठों की मिन्नतें करता कि दिल्ली बचाओ। एक बार तो सिखों के हमले से बेगम समरु ने बचाया था वरना मराठा फ़ौज के आते आते दिल्ली फिर लूट ली गई थी। मराठे ज़्यादा मज़बूत न हो जाएं, इस लिए बादशाह अफ़ग़ानों के साथ भी राब्ते रखता। ज़ाबता रोहेला को पैग़ाम भिजवाता कि क़ादिर को वो अपने बेटे की तरह पालता था। बादशाह ने क़ादिर को "रोशन-उद-दौला" का ख़िताब भी दे दिया था। पर पंजाब में सिख मिस्लों की हुक्मरानी के बाद अफ़ग़ानिस्तान की किसी फ़ौज में इतना दम ख़म नहीं रह गया था कि वो पंजाब पार कर के हिंदुस्तान पर हमला कर सके। इस लिए अफ़ग़ानों का अब ज़ोर टूटता जाता था। सो शाह आलम कंपनी बहादुर के साथ भी राब्ते रखे हुए था। 

सारा दिन शतरंज़ की चालों की तरह ये कश्मकश कर कर के इस का दिमाग़ हल्का हो जाता और अस्र के वक़्त महफ़िल सज जाती। पहले रक़्स व सरूद की महफ़िल होती। सारे हिंदुस्तान से गवय्ये और कंजरियां आतीं, अपनी फ़नकारियां दिखातीं और बादशाह से इनआम और वज़ीफ़े पातीं। फिर मुसव्विर, मुजस्समा-साज़ और सुनार आते, अपनी फ़नकारियां पेश करते और बादशाह से इनआम और वज़ीफ़े पाते। फिर क़िस्सा-गो और शायरों की बारी आती। वो बादशाह की उर्दू, हिंदवी, फ़ारसी, अरबी और तुर्की की शायरी भी सुनते और अपना कलाम भी सुना कर इनआम और वज़ीफ़े पाते। 

साल ऐसे ही गुज़रते रहे। क़ादिर रोहेला की मूंछें निकल आईं। 

हर वक़्त बादशाह के साथ ही बंधे रहने के बड़े फ़ायदे भी थे, पर बड़ा नुक़सान ये था कि लड़के को ख़बर ही नहीं हुई कि लाल क़िले की कितनी कनीज़ें और कितने ख़्वाजासरा, जिन सब की शाही मुहब्बतें वो चूस गया था, हर वक़्त इस ताक में रहते थे कि उसे बादशाह की नज़रों में गिरा दें। 

बच्चा होने और बादशाह का "मंज़ूर-ए-नज़र" होने के बाइस क़ादिर की शाही हरम में भी रसाई थी। शाही हरम में दाख़िल होना कोई ख़ाला जी का घर नहीं था। दो फ़ौजें चौबीस घंटे हरम की हर हरकत पर नज़र रखती थीं। एक तो बूढ़ी और बदसूरत कनीज़ें जिन्हें शाही ख़ानदान का कोई भी मर्द अपने साथ सुलाना नहीं चाहता था, और दूसरी हिजड़ों की फ़ौज, जो हरम और दुनिया में राब्ते का वाहिद ज़रीया थे। 

नए नए जवान हुए लड़के को, जिस ने औरत अभी न देखी हो, किसी भी कनीज़ के इश्क़ में गिरफ़्तार करवा देना एक शाही ख़्वाजासरा के बाएं हाथ का खेल था। शाही कनीज़ें मर्द के लम्स के लिए ऐसे ही तरसी रहती थीं, और उन्हें ये भी पता होता था कि अगर बादशाह का कोई मंजूर-ए-नज़र ख़्वाजासरा हो तो वो हरम में कुछ भी करवा सकता है। 

लड़का बादशाह की एक कनीज़ के साथ हरम में रंगे हाथों पकड़ा गया। इतनी आँखों में से लड़का फिसल कैसे गया और कनीज़ के कमरे में भी कैसे दाख़िल हो गया और फिर ऐन बिस्तर पर पकड़ा भी गया। ये सब हुआ कैसे, मसला नहीं था। जो बात बादशाह को परेशान कर रही थी वो ये थी कि लड़के को सज़ा क्या दी जाए? कनीज़ तो ज़िंदान ख़ाने की काल कोठड़ी के लिए मुक़र्रर कर दी गई थी पर लड़के का क्या किया जाए? कनीज़ कौन थी, बादशाह को याद भी नहीं थी। जिस भी कनीज़ के साथ बादशाह रात गुज़ार लेता वो दुनिया के बाक़ी सारे मर्दों पर हराम हो जाती। और अगर बादशाह पहली रात में इस के इश्क़ में गिरफ़्तार न हो जाए तो इस की दूसरी बारी इस वक़्त ही आ सकती थी जब नमकीन चाहे। अक्सर की दूसरी बारी कभी नहीं आती थी। 

लड़का एक तो बादशाह को पसंद बहुत था, दूसरा उसे मारना अफ़ग़ानों के साथ हमेशा के लिए ता'ल्लुक़ बिगाड़ने वाली बात थी, जो इस वक़्त शाह आलम के बिल्कुल भी मुफ़ाद में नहीं था। पर सज़ा देनी भी ज़रूरी थी। ये शहंशाह-ए-हिंदुस्तान की इज़्ज़त का सवाल था। इस के हरम पर हमला हुआ था। ये तो दो बंदों की पुगन पुगाई का खेल वाली बात हो गई थी। न कोई जीत सकता था न कोई हार सकता था। एक ही तरीक़ा बचा था कि बादशाह की ग़ैरत भी बच जाए, लड़का अफ़ग़ानियों को ज़िंदा महल में भी दिखता रहे, और बादशाह की रातें भी रंगीन करता रहे। 

अफ़ीम की मुनासिब मिक़दार शाही हकीम ने एक घूँट पानी में घोली और नमकीन को पकड़ा दी। ज़ंजीरों में जकड़े लड़के का मुंह एक क़वी-उल-जस्सा ख़्वाजासरा ने पकड़ कर खोला और नमकीन ने अफ़ीम का घूँट लड़के के मुंह में उंडेल दिया। क़वी-उल-जस्सा ने इस का मुंह बंद कर के नाक भी बंद कर दी। लड़का घूँट निगल गया। 

जितने में जर्राह ने आ कर अपने औज़ार आग पर गर्म किए, लड़का बेहोश हो चुका था। पर उसे समझ आ गई थी कि इस के साथ होने क्या वाला है। उसे चित्त लिटा कर चार क़वी-उल-जस्सा ख़्वाजासरा इस की टांगें बाज़ू पकड़े बैठे थे। जब इस के उज़्व काटे जा रहे थे तो इस ने तड़पने, गंदी गालियां निकालने और जर्राह के मुंह पर थूकने की कोशिश की, पर अफ़ीम की मिक़दार मुनासिब थी। जर्राह जब आग पर दहकती लाल छुरी पकड़ कर क़ादिर की टांगों में दाख़िल हुआ तो राल के साथ इस का पेशाब भी बह गया। क़ादिर के पेट के नीचे से ख़ून का फ़व्वारा निकला। जर्राह के हाथ ख़ून से भर गए, पर वो बड़ी एहतियात और महारत से गोश्त की थैली काटता रहा। जितनी देर शाही जर्राह इस की रानों के दरमियान जार्राहि करता रहा इस के मुंह में से ऐसी आवाज़ें आती रहीं जैसे वो ग़रारे कर रहा हो। 

तीन दिन लड़के को अफ़ीम पर रख कर हकीम ने आहिस्ता आहिस्ता मिक़दार घटानी शुरू कर दी। ये कोई छुपने वाली बात तो नहीं थी। अब वो आज़ाद तो था पर आते जाते हर कोई इस का मज़ाक़ उड़ाता। महल में इस का नाम "अफ़गानी दुंबा" पड़ गया था। 

कुछ ही अर्से बाद ख़बर आई कि ज़ाबता रोहेला बहुत बीमार है। ग़ुलाम क़ादिर रोहेला उर्फ़ अफ़गानी दुंबे को वालिद के पास भेज दिया गया।


1788ء

हर शहज़ादे, अमीर और वज़ीर को बारी बारी निचोड़ा गया। इस वक़्त तक जब तक ग़ुलाम क़ादिर रोहेला ने रोका नहीं। जिन का क़ादिर को याद था कि वो उसे अफ़गानी दुंबा कहते थे या उसे मल्का-ए-आलम कह कर छेड़ते थे, वो मार खाते खाते मर गए। जो शहज़ादियां, कनीज़ें और ख़्वाजासरा इस का मज़ाक़ उड़ाते थे, वो अफ़ग़ान अफ़सरों को इनआम हुईं और क़ादिर के सामने ही नंगी की गईं। 

क़ादिर हर मौत या ज़िनाकारी के बाद शाह आलम की तरफ़ देखता। बादशाह का चेहरा सपाट था। शायद उसे हकीम ने अफ़ीम की मुनासिब मिक़दार दी हुई थी या ज़िंदगी में उस ने इतना कुछ देख लिया था कि ये सदमे भी वो एक और कड़वा घूँट कर के पीता जाता था। इस का सपाट चेहरा देख देख कर क़ादिर को एड़ियों में आग लगती और खोपड़ी तक जाती। 

चार क़वी-उल-जस्सा अफ़ग़ानों ने बादशाह को सीधा लिटा कर इस की टांगें और बाज़ू दबा लिए। ग़ुलाम क़ादिर रोहेला बादशाह की छाती पर चढ़ गया। 

"शहंशाह-ए-हिंदुस्तान शाह आलम सानी, वो वक़्त याद कर जब तेरे बंदे ऐसे ही मुझे दबा कर बैठे थे। याद है?" 

शाह आलम कुछ न बोला। इस की सुकी हुई आँखें दहकती लाल सुई पर जम गई थीं। 

"शाह आलम, ऐसे ही दहकते लोहे से मुझे काट दिया था ना? याद कर!" 

क़ादिर ने दहकती सुई शाह आलम की बाईं आँख के क़रीब कर दी। बादशाह का चेहरा ख़ौफ़ से सिकुड़ गया। बादशाह के बिगड़े हुए चेहरे को देख कर क़ादिर ने क़हक़हा लगाया। 

"शाह आलम, तू ने मेरी मरदानगी पर हमला किया था ना, पर मैं इतना घटिया नहीं। ऐसे भी तो क्या मर्द रह गया है। वो देख तेरा हरम मेरी फ़ौज की टांगों में पड़ा तड़प रहा है। यही बचाना था ना तू ने, अब बचा इन्हें मेरे से।" 

क़ादिर पागलों की तरह क़हक़हे लगाता रहा। बादशाह की पलकें सुई की तपिश से सड़ गई थीं। 

"इन आँखों से तो ने मेरी बेबसी का तमाशा देखा था ना?" 

बादशाह कुछ न बोला। 

"इन आँखों से ही तो ने जर्राह को इशारा किया था ना मेरी मरदानगी काटने का। अब ये आँखें कोई इशारा नहीं कर सकेंगी। ये अब रहेंगी ही नहीं। तुझे अब ग़ुलाम क़ादिर रोहेला की शक्ल के बाद कुछ नहीं दिखेगा। अब तो सारी उम्र क़ैद ख़ाने की काल कोठड़ी में मेरी शक्ल याद करता रहेगा। देख, मुझे ग़ौर से देख ले, तेरी ज़िंदगी की आख़िरी शक्ल।" 

ये कह कर क़ादिर ने बाएं हाथ से बादशाह की बाईं आँख खोली और लोहे की दहकती सुई आँख के ढेले पर रख दी। गोश्त जलने की आवाज़ शहंशाह-ए-हिंदुस्तान की चीख़ों में दब गई। बादशाह इतनी ज़ोर का तड़पा कि क़ादिर एक तरफ़ जा गिरा। क़हक़हे लगाता वो बादशाह को फरफड़ता और चीख़ता देखता रहा। फिर एक फ़ौजी को इशारा किया। फ़ौजी ने बादशाह के मुंह को बाईं तरफ़ मोड़ा और क़ादिर ने अब दाईं आँख खोल कर दहकती सुई आँख के बीच फेर दी। 

बादशाह की चीख़ें महल की छतें फाड़ने लगीं। कितनी देर शहंशाह-ए-हिंदुस्तान फड़फड़ाता रहा, और इस के गले में से ऐसी आवाज़ें आती रहीं जैसे वो ग़रारे कर रहा हो। मराठे जब ग़ुलाम क़ादिर रोहेला का सर ले कर आए तो शाह आलम सानी की आँखों के ज़ख़्म भर चुके थे। नमकीन ने बादशाह के कान में बताया कि इस के सामने थाल में क़ादिर का सर लाया गया है। बादशाह की सफ़ेद आँखें क़ादिर के सर पर ऐसे टिकी थीं जैसे उसे दिखता हो।


1803ء

बेगम समरु चली गई और बादशाह ने कातिब को बुला लिया। उर्दू की दास्तान "अजा'इब-उल-क़सस" के तीन हज़ार सफ़े लिखे जा चुके थे। बादशाह ने दास्तान आगे लिखवानी शुरू की। शहज़ादे को एक अंधे कुएं में क़ैद किया गया था। इस के हाथ पैर आज़ाद थे, पर कुएं से बाहर की दुनिया में वो एक चिड़िया भी नहीं उड़ा सकता था। परी शाह की न दिखाई देने वाली ज़ंजीरों में शहज़ादा जकड़ा हुआ था। 

ज़म्रुद को लगा शाह आलम सानी शहज़ादा शम्स-उल-अजा'इब का नाम ले कर अपनी ही दास्तान लिखवा रहा था।


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